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Mr. Jagdish Chander Secy. Jnrl HPSJA, |
(SAVING HIMALAYA FOR SURVIVAL OF FUTURE GENERATION)
1. उत्तराखंड में हाल ही में आई आपदा को प्रकृति की ओर से अंतिम चेतावनी मानकर हमें हिमालई क्षेत्र के संरक्षण हेतु व्यापक स्तर पर योजनाएं बनानी होंगी अन्यथा भविष्य में हिमालय का और भी खौफनाक रूप देखने को मिल सकता है, जो अन्तत: सारी मानवता को विनाश की ओर ले जा सकता है। इसके लिए न केवल हिमालयी पर्यावरण के अनुकूल और अनुरूप योजनाओं की जरूरत है वरन सभी लोगों को इस दिशा में जागरूक बनाने की भी उतनी ही आवश्यकता है क्योंकि यह प्रश्न सिर्फ एक राज्य या सिर्फ हिमालयी राज्यों से जुड़ा हुआ न होकर सारी मानवता से सम्बद्ध है ।
2. ‘पहाड़ बचाओ-हिमालय बसाओ’ का नारा व सपना तब तक साकार नहीं हो सकता जब तक ’पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती’’ की अवधारणा को बदलने के लिए जमीनी स्तर पर गंभीर प्रयास नहीं किए जाते। आज हिमालय जिन समस्याओं से जूझ रहा है उन सबका हल इसी पुरानी अवधारणा में छिपा है। दुर्भाग्यवश न केंद्र की सरकार और न ही किसी हिमालयी राज्य की सरकारों ने इस स्थिति को बदलने का प्रयास किया है। उक्त अवधारणा में छिपा रहस्य यह है कि पहाड़ों में जन्मे, पले-पोसे युवा आजिविका के लिए छोटी-छोटी नौकरियों की तलाश में अपनी आरंभिक युवावस्था में ही मैदानों की ओर पलायन कर जाते हैं। इसी प्रकार पहाड़ों में वर्षा का सारा जल नीचे की ओर मैदानों में बह जाता है । वर्षा ऋतु के दौरान यह अथाह पानी न केवल मनुष्यों और पशुओं के जीवन तथा सम्पत्ति को भारी नुकसान पहुंचाता है वरन, मैदानी भागों में खड़ी फसलों को भी बहा ले जाता है। दूसरी ओर गर्मियों में मनुष्यों व पशुओं के लिए पहाड़ों में पीने के पानी की विकराल समस्या का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही सिंचाई व अन्य मूलभूत जरूरतों के लिए पानी की कमी के कारण पानी से चलने वाले घराट (आटा चक्कियां) बंद हो चुके हैं । हजारों की संख्या में खाले (झील/तालाब) जिनसे फसलों को सिंचाई व पशुओं को पीने का पानी उपलबध होता था वे जल के प्राकृतिक सुलभ स्रोत अब विलुप्त होते जा रहे हैं और पहाड़ों की ‘’खाल संस्कृति’’ अब बीते दिनों की बात बन गई है।
3. संपूर्ण हिमालय के पर्यावरण को बचाने के लिए एचईपीएफ के गठन का विचार पिछले 21 वर्षों तक गहन मंथन व विचार विमर्श का परिणाम है। यह विचार सर्वप्रथम ‘हिमालयन इकोसिस्टम का संरक्षण और टिकाऊ विकास’ नामक एक व्याख्यान में मेरे द्वारा (सम्प्रति एचपीएसजेए के महासचिव) वर्ष 1991 में बर्मिंघम विश्वविद्यालय (यूके) के लोक नीति स्कूल द्वारा आयोजित एक अवसर पर प्रकट किया गया था। हिमालय क्षेत्र की दुर्गम भौगोलिक स्थिति, वहां के लोगों के कठिन जीवन, सामाजिक-आर्थिक दशा, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि तथा अन्य बातों को ध्यान में रखते हुए हिमालय और उसके पर्यावरण को बचाने के लिए इससे अच्छा मॉड्यूल और नहीं हो सकता क्योंकि सरकार के पिछले पैंसठ वर्षों में बनाए गए कार्यक्रम तथा योजनाएं कारगर साबित नहीं हो सकी हैं।
4. देश की आजादी के बाद पांचवे दशक में जंगलात विभाग ने एक भयंकर भूल की जिसमें क्षेत्रीय वन पंचायतों व ग्राम सभाओं के द्वारा आनन फानन में उत्तराखंड के गांवों से सटी चरागाह भूमि के लगभग 50 फीसदी हिस्से में युद्धस्तर पर चीड़ के पेड़ लगा दिए जिनसे पर्यावरण को निम्न प्रकार से भयंकर नुकसान पहुंचा है ।
1) पालतू पशुओं के लिए चारे का संकट पैदा हो गया ।
2) चीड़ का पेड़ वर्षा के पानी के संरक्षण में सहायक नहीं होता ।
3)
चीड़ की पत्तियां अम्लीय गुणों वाली होती हैं तथा ये जमीन में जहां गिरती हैं वहां वनस्पति नहीं उगती जिसके कारण चीड़ के पेड़ों के नीचे की जमीन बंजर भूमि में बदल जाती है।
4)
चीड़ की पत्तियां पशुओं के भोजन के काम नहीं आतीं। सूखी पत्तियां आग को जल्दी पकड़ लेती हैं। यह आग शीघ्रता से विकराल रूप ले लेती है जिससे पर्यावरण को भारी नुकसान होता है। इससे पशु पक्षी जल जाते हैं और जो बच जाते हैं वे अपने भोजन के लिए मानव बस्तियों की ओर आकर कृषि और बागवानी फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे त्रस्त गांव के लोग कई बार जिला मुख्यालय में जंगली जानवरों, बंदरों, जंगली सुअरों के उत्पात से रक्षा करने की गुहार लगाते हैं ।
5)
हिमालयी क्षेत्रों में बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं को बड़े स्तर पर प्रारंभ करना पर्यावरण के विनाश का एक अत्यन्त भयंकर कारण बना है । इसके लिये हिमालय क्षेत्र के निवासियों को इन बांधों को बंद करने के लिए जन आंदोलन चलाना होगा ।
6)
डायनेमाइट लगाकर ब्लास्ट कर सड़कें बनाने से भी पहाड़ों को नुकसान पहुंचा है। सड़कों के दोनों किनारों पर तीन कतारों में देवदार या अन्य उपयोगी प्रजातियों के शक्तिशाली वृक्षों को लगाना चाहिए ताकि खाई में बसों के गिरने को रोका जा सके साथ ही पहाड़ों के ऊपरी छोर से आने वाले पत्थरों से भी सुरक्षा मिल सके । सड़क की योजना बनाने के साथ-साथ पेड़ों को लगाने की योजना भी एक साथ तैयार की जानी चाहिए।
7)
हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योग धंधों पर तत्काल प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। वहां केवल उन्हीं उद्योगों को चलाने की अनुमति दी जानी चाहिए जो पर्यावरण के अनुकूल हों। हिमालय आज लहू लुहान है तथा तत्काल हस्तक्षेप के लिए हमारी ओर देख रहा है। हिमालय आज भयंकर रूप से संकटग्रस्त है जिससे हमारे अराध्य देव भोले भंडारी का सिंहासन डोल उठा है ।
8)
यह बात हम सभी जानते हैं कि हिमालय से हमें जल, जंगल, उपजाऊ मिट्टी, शुद्ध आक्सीजन, इमारती लकड़ी के अलावा दुलर्भ जड़ी बूटियों की प्राप्ति होती है। हमारा संपूर्ण आस्तित्व ही हिमालय से जुड़ा है। हिमालय की चमचमाती बर्फ, सुंदर व मनोरम पर्वत श्रृंखलाएं, गहन वन इसे भारत के स्विटजरलैंड में रूपांतरित करने में सक्षम है। हिमालय अपनी अलौकिक विशेषताओं व विशिष्टताओं के कारण विश्व का सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटन स्थल तथा पृथ्वी पर स्वर्ग की अवधारणा को सक्षम करने की क्षमता रखता है। साथ ही यह वैश्विक तापमान के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने की अपार क्षमताएं संजोए हैं किंतु इसके लिए हिमालय का उचित संरक्षण व देखरेख भी उतनी ही आवश्यक है।
9)
भारतीय हिमालय क्षेत्र के रहने वाले लोगों का जीवन अति कठिन है क्योंकि उन्हें स्वयं के भोजन, पशुओं के चारे, ईंधन व पानी जैसी अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए रोजाना लंबी दूरी तय करनी पड़ती है तथा दुर्गम और कष्टपूर्ण ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ना पड़ता है। दुर्भाग्य से आजादी मिलने के 65 वर्षों के बाद भी इन कठिनाइयों से निजात दिलवाने के लिए सरकार द्वारा कोई गंभीर प्रयास अब तक नहीं किए गए हैं। हिमालय की समस्याओं को छोटे-छोटे प्रयासों या केवल गैर सरकारी संगठनों की सहायता के बल नहीं सुलझाया जा सकता। इसके लिए हिमालय जैसे बड़े प्रयास की जरूरत है जो हिमालय की प्रकृति के अनुरूप हों, उसके परिवेश, परिप्रेक्ष्य व हिमालयी दृढ़ता से सुविचारित योजना के अनुसार तैयार और संचालित हों। अत: इसे विचार में लेते हुए सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की तर्ज पर एक हिमालयी पर्यावरण संरक्षण बल (एचईडीएफ) को बनाए बगैर हिमालय व उसके पर्यावरण को बचाना अकल्पनीय है। प्रस्तावित हिमालयी पर्यावरण संरक्षण दल में पांच प्रभाग का प्रावधान होगा जो निम्न होंगे :
क. सिविल इंजीनियरिंग प्रभाग: चैक डाम निर्माण, इसकी देखभाल एवं मरम्मत तथा हिमालयी क्षेत्र में घोर प्राकृतिक आपदा से निपटने के ज्ञान तथा तकनीक में प्रशिक्षित, सुसज्जित एवं सक्षम कौशल का विकास ।
ख. शीतल जल मात्स्यिकी प्रभाग: इसके तहत जल जीवपालन से जुड़े लोगों को शीतजल में मछली पालन का उचित ज्ञान देने के लिए मत्स्य वैज्ञानिकों तथा उनकी सहायक टीम होगी ताकि मछली पालन द्वारा अतिरिक्त आय प्राप्त करने के साथ साथ लोगों की पोषण जरूरतों की भी पूर्ति की जा सके।
ग. नर्सरी तैयार करने वाला प्रभाग: इसकी शाखा प्रत्येक जिले की सभी तहसीलों में स्थापित की जाएगी जो शीघ्र उगने वाले व जल संचयन करने वाले वृक्षों की नर्सरी तैयार करेगी।
घ. वृक्षारोपण और देखभाल प्रभाग: वृक्षारोपण करना तथा लगाए गए पेड़ों की देखभाल करना। सड़क निर्माण के तुरन्त बाद सड़क के दोनों छोरों पर तीन कतारों में देवदारू या अन्य उपयोगी व मजबूत वृक्षों को लगाना जिससे मिट्टी के क्षरण, भूस्खलन व वाहनों को खाई या नदी में गिरने की आशंका को कम कर प्रत्येक वर्ष सड़क-हादसों में जाने वाली हजारों जानों को बचाने के साथ-साथ सड़क के ऊपरी पहाड़ों से भारी भरकम पत्थरों के सीधे वाहनों पर गिरने को भी रोका जा सके। वृक्षारोपण से पर्यावरण भी अनुकूल होगा तथा पर्यटकों को हरे भरे पहाड़ देखने का एक अलग आनन्द प्राप्त होगा ।
ड. हैलीकॉप्टर प्रभाग: यह अपेक्षाकृत छोटा प्रभाग होगा क्योंकि हैलीकॉप्टरों की आवश्यकता मई- जून के महीने में वर्षा शुरू होने के पहले उन स्थानों में जहां पहाड़ बिल्कुल वृक्ष विहीन हैं भारी संख्या में जंगली वृक्ष प्रजाति के बीजों को गिराना होगा ताकि नंगे पहाड़ों को फिर से हराभरा किया जा सके। इनका उपयोग आपदा के समय आपातकालीन स्थिति में भोजन, पानी, दवा आदि की आपूर्त्ति या संकट में फसें लोगों को एक स्थान विशेष से निकालना होगा । पहाड़ों को फिर से हरा भरा करने से जंगली जानवरों को भी भोजन की तलाश में भटकते हुए मानव बस्तियों की ओर रूख नहीं करना पड़ेगा।
5. अतीत में एक आम धारणा थी कि भारत तीन ओर से हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर तथा उत्तर में ऊंची और विशाल हिमालय श्रृंखलाओं वाले प्रहरी से घिरा होने के कारण किसी भी प्रकार के विदेशी आक्रमण से सुरक्षित है। चीन ने हमारी सीमा के पास तक सड़कें रेल-संपर्क को बढ़ाया है और वह कई प्रकार से हमारी संप्रभुता को चुनौती दे रहा है। हमारे पास कोई ऐसा तंत्र नहीं है जो दुर्गम पहाड़ों से घिरे व्यापक क्षेत्र में हो रही हलचलों की जानकारी दे सके । हिमालयी पर्यावरण सुरक्षा बल (HEPF) का गठन सीमा सुरक्षा बल और सीमा सड़क संगठन की तर्ज पर किए जाने की आवश्यकता है जो अपने वास्तविक जनादेश के अलावा कारगिल जैसी घटनाओं की भविष्य में पुनरावृत्ति रोकने में काफी मददगार सिद्ध हो सकता है।
5.1 हिमालय सुरक्षा बल की फंडिंग
यह परियोजना सूचना प्रौद्योगिकी तथा श्रम प्रचुर होने के कारण इसमें कम पूंजी की जरूरत होगी जिसे कई स्रोतों से जुटाया जा सकता है जिनमें से कुछ को नीचे दिया जा रहा है : -
1) संयुक्त राष्ट्र संघ के 1988 के क्योटो प्रोटोकॉल के तहत विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों के लिए ग्रीन फंड
के लिए संसाधन उपलबध कराए जा सकते हैं।
2) तीन सहभागियों यथा विश्व बैंक, केंद्र सरकार और हिमालयी राज्यों द्वारा फंडिंग के माध्यम से ।
3) ठंडे पानी की मछलियों के उत्पादन से स़ृजित आय द्वारा जिसे अब तक हिमालयी राज्यों में वृहत पैमाने पर
उपयोग में नहीं लाया गया है।
4) हिमालय के लिए उपयुक्त उद्योग और परियोजनाएं
1.
कंप्यूटर के विभिन्न पार्टों को इक्टठा करना
2.
मिनरल वाटर बॉटलिंग उद्योग
3.
खाद्य एवं फल प्रसंस्करण उद्योग
4.
जैविक खाद उत्पादन उद्योग और उस पर आधारित जैविक खेती
5.
बांस का रोपण और इस पर आधारित लघु और कुटीर उद्योग
6.
रेशम उत्पादन
7.
टेरेस पर खाद्य, सब्जियां, बागवानी, हर्बल खेती और प्रसंस्करण आधारित उद्योग
8.
जहां कही संभव हो चाय बागान
9.
मशरूम की खेती
10.
मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन
11.
पशुपालन और मुर्गीपालन
12.
भेड़ से ऊन उत्पादन, बुनाई और बुनाई उद्योग
13.
कुटीर एवं लघु उत्पादन उद्योग द्वारा ऊनी कपड़े
14.
लघु और छोटे पैमाने पन बिजली इकाइयों के माध्यम से बिजली का उत्पादन
15.
यहां हवा के वार्षिक स्रोत हैं जिनसे पवन ऊर्जा के माध्यम से बिजली का उत्पादनकिया जा सकता है।
16.
सौर और जैव ईंधन के माध्यम से बिजली का उत्पादन
17.
पांच सितारा पर्यटन के स्थान पर यहां ईको टूरिज्म (पारिस्थितिकी पर्यटन) का विकास एवं प्रचार किया जाना चाहिए।
18.
एक पर्यावरण टैक्स फंड बनाया जाना चाहिए जो हिमालय में प्रवेश करने वाले वाहनों पर लगाया जा सकता है : -
हिमालय को बचाने के लिए जागो !
ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि अगले चालीस पचास वर्षों में समुद्र तट से लगे शहरों को डूबने का खतरा है। पवित्र गंगा नदी का आस्तित्व अगले 80 या इससे कुछ अधिक वर्षों में समाप्त हो जाने की आशंका है।
हिमालय भूकंप संभावित जोन में आता है इसलिए बड़ी पनबिजली परियोजनाएं इसके लिए खतरा पैदा कर रहीं हैं। दुर्भाग्य से यदि कभी 8 से अधिक रिक्टर स्केल तीव्रता का भूकंप आ जाए तो टेहरी डाम टूटकर हरिद्वार, ऋषिकेश, रूड़की सहित पश्चमी उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों को बहा सकता है जिससे मानव व कितने पशुधन व माल असबाब का नुकसान होगा यह कल्पना करना भी कठिन है ।
दिल्ली तथा एनसीआर में हिमालयी राज्यों से जुड़ी लगभग 35 प्रतिशत जनसंख्या है। उनकी सांस्कृतिक विरासत तथा पृष्ठभूमि लगभग एक जैसी है लेकिन वे लोग अभी तक इस मसले पर अपनी एकता को प्रदर्शित नहीं कर पाए हैं । अत: सबसे पहली जरूरत है कि लोगों को ‘’ भावी पीढि़यों के लिए हिमालय बचावो’’ बैनर तले एकजुट होना होगा। उन्हें ‘’ एक शाम हिमालय के नाम’’ जैसे कार्यक्रमों के जरिए लोगों को आपस में जागरूक करना होगा जिसके लिए लोक -संगीत, लोक नृत्य, कविताएं, वाद-विवाद तथा परिचर्चा और सेमिनार आयोजित कर हिमालय से जुड़े मुद्दों से लोगों को अवगत कराना होगा।
कृपया हिमालय की रक्षा के लिए तैयार रहें, समर्थन दें!
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