सोमवार, 20 अगस्त 2012

"सप्तकुण्ड एक परिचय" :




सप्त्कुण्ड शायद आप लोगों को पहली बार ये नाम सुनाई दे रहा होगा, !!  हमारे देश मे ऎसे कई भव्य एवं प्राकृ्तिक सुन्दरता से भरे स्थान है जो लोगों की पहुँच से काफी दूर है, हमारे उत्तराखण्ड में ही कई अदभुत नजारे हैं. परन्तु आज भी ऎसे जगहों से हम अनजान है. एसे स्थानों में पर्याप्त  संसाधन न मिल पाने एवं प्रशासन की तरफ से कोई भी कदम न उठाए जाने के कारण सबकी पहुँच से काफी दूर रह जाते है,  एसे स्थान  देश के  ही नहीं बल्कि विदेशी पर्यटकों  का भी आकर्षण का केन्द्र होते है.. हमारे प्रशासन की जागरूकता की कमीं के कारण आज भी हिन्दुस्तान में कई जगह अछूते रह गये हैं।  क्योकि ऐसे जगहों पर या तो रोड नही होती है साथ में पर्याप्त साधन नही होते है. जिस कारण लोग एसे जगहों तक पहुंचने मे सफल  नही हो पाते है, एक मुख्य कारण है मीडिया से दूर होने के कारण कई इस प्रकार की हमारे देश की धरोहर पीछे रह जाती है।  हमको चाहिए कि हम खुद के छोटे से प्रयास से हमारे देश की एसे  अमूल्य धरोहरों को जितना हो सके देश एवं विदशों मे प्रचलित करें जिससे लोग हमारे देश को जान पाए, हमारे पहाड़ एवं संस्कृ्ति को समझ पाएं।
सोचिये अगर हमारे देश मे ऐसी जगह है जहाँ स्वर्ग बसता है.तो हमारा देश कितना महान है. अगर हम लोग अपना थोडा़ सा समय अपने देश की संस्कृ्ति विरासत एवं प्राकृ्तिक धरोहर के लिए निकालें तो यह हमारे एवं देश के लिये बहुत गौरव वाली बात होगी।

परिचय:-
सप्तकुण्ड एक धार्मिक एवं पर्यटक स्थल है यह भारत मे उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले मे झींजी गाँव से लगभग २६ किमी. की दूरी पर पड़ता है।
सप्तकुण्ड जाने के लिए झींजी गाँव से हो कर मुख्य मार्ग जाता है सुरुवात  में घने जंगलो के बीच से  होते हुए चढाई का सामना करके धीरे धीरे पेडो़ की शीतल छाँव के साथ साथ कई उतार चढाव के बाद पहुँचा जाता है. यहाँ का दृष्य बड़ा ही सुन्दर है. यहाँ की सुन्दरता मन को मोह देने वाली है एवं पेड़ों कि ठन्डी छाँव पहाडो़ की सुन्दर श्रृखलाएं सुन्दर वादियां मन को मोह लेती है यहाँ की ठंडी हवायें, एसे लगता है जैसे कि पूरी पृथ्वी की सुन्दरता यहाँ आकर सिमट गयी हो..! यहाँ आने के बाद इन्सान अपने को भूल जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि स्वर्ग मे आ गये है. पूरी तरह प्रकृति में खो जाता है! इस भाग दौड. की जिन्दगी मे इन्सान को अपने लिये वक्त नहीं होता है. परन्तु वहाँ इन्सान अपनी सारी परेशानिया भूल जाता है. और एक नयी जिन्दगी को महसूस करता है! सायद यही इन्सानो के लिये स्वर्ग है. जहां प्रकृति के सारे रंग नज़र आते है। और इस अनुभूति के साथ भी इस प्रकृ्ति के इस सुन्दर मनमोहक वदियों मे खो जाता है।
वैसे तो सप्तकुण्ड का वर्णन शब्दो मे माध्यम से नहीं किया जा सकता है पर फिर भी मै कोशिश करता हूँ, सप्त्कुण्ड सात कुण्डो का स्थल है. यहाँ सात बडे़ कुण्ड (झील) है जो बहुत ही मनोरम एवं अतिसुन्दर एवं अदभुत है. इन कुण्डों का धार्मिक मान्यताओं के आधार पर  अलग अलग स्तर पर विशेष महत्व है,  सप्तकुण्ड में पर्यटकों  के  साथ ही धार्मिक लोगो का भी आवगमन होता है, यहाँ कई दैवीय शक्तियों का भी स्थान है,   स्थानीय  गाँव के लोगो के द्वारा प्रति वर्ष यहाँ भगवान शिव एवं माँ पार्वती भगवती पूजा की जाती है. यहाँ मान्यता के अनुसार यहाँ भगवान शिव का वास स्थान है. यहाँ दैवीय शक्तियाँ निवास करती है. वहाँ जाने वालों को ये प्रतीत होता है. और लोगो को इसका अनुभव भी हो चुका है।
सप्त्कुण्ड जमीनी तल से लगभग २०००० फ़ुट की उंचाई पर, पीछे की और से त्रिशूल एवं नन्दा देवी से घिरा हुआ है, सप्तकुण्ड में  इतनी उंचाई पर सात कुण्डों का समूह  एक अजूबा लगता है। कहा गया है कि पुराणों मे भी यहाँ का वर्णन है,  फिर भी ये एक रहस्य बना हुआ है अभी तक ये किसी को पता नहीं  चल पाया है कि यहाँ की हकीकत क्या है. पर इतना तो जरूर है  एसे जगहों मे प्राकृ्तिक एवं दैवीय शक्तियों का वास होता है, सायद ये प्रकृति का ही चमत्कार है.! इस बारे मे और अधिक जानकारी  दूसरे संस्करण में दूँगा.!

सप्त्कुण्ड तक पहुचँने के लिये पहले कोई आसान मार्ग नही था..!. परन्तु अब वहाँ आसानी से पहुँचा जा सकता है, काफी मकसत के बाद आखिर में सन, २००३ में झींझी गाँव से मार्ग का निर्माण किया गया, वहाँ तक पहुंचने के लिये पैदल अथवा घोडे़ खच्चर भी उपलब्ध  होते है। और यहाँ जाने के लिये मई से नवम्बर तक अनुकूल मौसम होता है। धीरे-धीरे लोगो को यहाँ का पता चल रहा है. और कफी  लोगो का रुझान उदर की और बड़ रहा है. और लोग वहां जा रहे है।
सप्तकुण्ड जाने के लिये अगर दिल्ली से जाना है तो इस प्रकार जाना होगा :-
                                                                                                          (लगभग)
दिल्ली से हरिद्वार --------------- २१० किमी०  मोटर मार्ग.
हरिद्वार से ऋषिकेश --------------- २४ किमी०   मोटर मार्ग.
ऋषिकेश से देवप्रयाग --------------- ७० किमी०   मोटर मार्ग.
देवप्रयाग से श्रीनगर --------------- ३३ किमी०   मोटर मार्ग.
श्रीनगर से रूद्रप्रयाग --------------- ३६ किमी०   मोटर मार्ग.
रूद्रप्रयाग से कर्णप्रयाग   -------------- ३१ किमी०   मोटर मार्ग.
कर्णप्रयाग से नन्दप्रयाग -------------- २१ किमी०   मोटर मार्ग.
नन्दप्रयाग से चमोली   -------------- १० किमी०   मोटर मार्ग.
चमोली से निजमुला   -------------- २० किमी०   मोटर मार्ग.
निजमुला से झीझी गाँव -------------- २२ किमी०   पैदल मार्ग.
झींझी से सप्तकुण्ड   -------------- २४ किमी०   पैदल मार्ग.

आशा करता हूँ कि आप यहाँ जरूर जायेंगे और आपको यह जगह बहुत पसन्द आयेगी। अगर कोई तुर्टि हुई हो तो उसके लिये मै छ्मा चाहूँगा मेरी पूरी कोशिश  रहेगी कि जो हमारे देश मे जो धरोहर है उनको दुनिया की सामने लाऊं लोगो से उनका परिचय करवाऊं. ताकि लोगों को भी पता चले हमारे देश मॆ ऎसे भी जगह जहाँ जाकर ऐसा प्रतीत हो कि सच मॆ हमारा देश सांस्कृतिक विरासत से परिपूर्ण एवं महान हैं। हमारे देश मे वो सब कुछ है जो दुनियाँ के और देशों मॆ नहीं है. हमको चाहिये को उनको ढूंड कर सबके सामने लायें! तभी हम अपने देश को दुनिया के देशो मॆ सबसे आगे ला सकते है! हम लोगो को बता सकें कि हमारा भारत महान है. सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान  हमारा!

धन्यवाद !!

!! जय हिन्द !!

 © देव नेगी


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बलि प्रथा या कुप्रथा :



अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये किसी की हत्या करना..! जी हाँ ये सच है अपने स्वार्थ के लिये देवी देवताओं के नाम पर आज भी कई जगह बली दी जाती है .पुराने समय से यह धारणा रही है कि बलियों के जरिये देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है। कुछ रूढ़िवादी लोगों और समूहों के द्वारा समाज में इस प्रकार की भ्रांतियां फैला दी जाती हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि  एक निर्दोष  प्राणी की हत्या से कैसे ईश्वर  प्रसन्न हो सकते हैं, जबकि धरती का हर प्राणी ईश्वर  की ही देन है।  एक तरफ कहा जाता है कि हत्या करना पाप है और दूसरी तरफ अपने पापों और बुरे कर्मों के आड़ मे पाप पर पाप करते जाते है.  जब ईश्वर सबको जीवन प्रदान करता है तो हम कौन होते है किसी के जीवन को खतम करने वाले..?  कई मंदिरो मे आज भी कई बकरियों एवं बैसों की बली दी जाती है, कुछ रूढीवादी ख्यालात  वाले लोगों  की सोच के कारण निर्दोष जानवरों की हत्या की जाती है, पर क्यो..?? ये सोचने वाली बात है...!
कुछ लोगों ने इस पर अमल जरूर किया है और इसके विरुद्ध  आवाज भी उठाई और कई जगह ये सफल भी हुए, पर दु:ख  की बात यह है कि  कुछ लोगो की सोच अभी तब नये जमाने को दस्तक नहीं दे पायी.  इसी कारण कई जगह ये परम्परा के नाम पर बली प्रथा को प्रोत्साहित करते है.!!
वैसे तो बली प्रथा आज पूरे भारत में एक अभिशाप के रूप में उभरा हुआ है परन्तु कुछ राज्यों मे ज्यादा ही बली की परम्परा का प्रचलन है उनमे से एक राज्य है उत्तराखंड !! देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखण्ड में आज भी कई मंदिरो मे देवताओं के नाम पर  बली दी जाती है.
उत्तराखण्ड कें गढ़वाल एवं कुमांऊ क्षेत्रों में समान्तर रूप से बलि की प्रथा बहुत समय पहले से प्रचलित है. प्रम्पराओं एवं देवताओं के नाम पर की जाने वाली हत्या हर जगह अलग अलग रूप में होती  है. कहीं सामूहिक रूप के किया जाता है और कहीं व्यक्तिगत रूप से..!
गाँवो में दी जाने वाली बलि व्यक्तिगत रूप से परिवार के कुल देवता के लिए या भूत प्रेत आत्माओं के लिए  जाती है,.! . और सामूहिक रूप से दी जाने वाली बलि गाँव के देवता या स्थान देवता को दी जाती है. कहा जाता है अगर बलि नहीं हुई तो देवता संतुष्ट नहीं होगें. और नारज हो कर अपना प्रकोप मनुष्यों के जीवन मे डालेंगे. इससे बचने के लिए बलि दी जाती है.!
मेरी आज तक एक बात समझ में नहीं आयी जब लोग बली करते है तो सारा माँस खुद खा लेते है तो देवता क्या खाते है?? ये सोचने वाली बात है. एक बात और  सबसे पहले देवता गण माँसाहारी नहीं थे जितने भी माँसाहारी थे वो सब राक्षस गण थे तो क्या हम राक्षसों की पूजा करते है..? क्योंकि राक्षस गणो को ही मांस मदिरा चढाया जाता है.!  बात साफ है देवताओं के नाम पर खुद का शौक पूरा करना. नाम देवताओं का और राक्षस खुद बनना.. यानि कि जितने भी बलि होती है वो देवताओं के लिये नहीं बल्कि देवताओं के नाम पर खुद के लिए होती है.
उत्तराखंड में कई जगहों कर 8-9 दिन का प्रारम्परिक उत्सव मनाया जाता है इस उत्सव को भिन्न जगहों मे  अलग अलग  नामों से जाना जाता है.  गढ़वाल में कुछ हिस्सों मे इस उत्सव को अठवाडे़ (अठवार) के नाम से जाना जाता है क्योंकि ये 8 दिन का उत्सव होता है ये गढ़वाल एवं कुमांऊ दोनो क्षेत्रो मे होता है. इस उत्सव मे कई बकरे और अन्तिम दिन  नर भैसों की बली दी जाती है..!
प्रशासन द्वारा भी इसको रोकने की कई कोशिस की गई है पर प्रशासन भी अभी तक  नाकाम रहा है.
बलि प्रथा की सुर्खियों की वजह उत्तराखंड के बुनखल में हुई पशु बलि और इसे लेकर विरोध के स्वर कुछ इस कदर मुखर किए कि एक बार फिर यह कुरीति चर्चा का सबब बन बैठी । उत्तराखंड में कई ऐसे मेले और त्योहार हैं जिनमें बलि का चलन है । गढ़वाल एवं  कुमांऊ में आयोजित होने वाले अधिकांश मेले ऐसे ऐतिहासिक आख्यानों से भरे पड़े हैं । परम्परा  के मुताबिक इन आयोजनों में पशुओं की बलि देने का रिवाज है । ऐसा ही एक मेला बूंखाल मेला है । इस मेले में सैकड़ों बकरों समेत नर भैसों की जान शक्ति उपासना के नाम पर ली जाती है ।  जैसे पहले ही बता चुका हूँ कि गढ़वाल में मेलों को अठवाड़े के नाम से भी जाना जाता है ।  गढ़वाल में बलि प्रथा की बात की जाए तो अठवाड़े से ही इसका चलन शुरू होता है । हालांकि तमाम मेलों में प्रशासन द्वारा बलि प्रथा बंद करने की कोशिश की गयी है   लेकिन बूंखाल में यह क्रूर प्रथा आज भी कायम है । बीते साल सामाजिक संगठनों और प्रशासन की जद्दोजहद के बाद नब्बे नर भैसों और हजारों बकरों की बलि चढ़ाई गई थी । राज्य सरकार ने पशु बलि अवैध घोषित कर रखी है लेकिन इस मेले में इसे रोकने की अभी तक कोई सफल कोशिश दिखाई नहीं देती है । प्रशासन यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि जनजागरण के प्रयास किए जा रहे हैं । धार्मिक प्रथा पर बलपूर्वक रोक नहीं लगाई जा सकती । कुछ   संस्थाओं ने इस क्रूर प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई है । इन्हीं के चलते मेला क्षेत्र में धारा 144 लागू करनी पड़ी जबकि ठीक इसके उलट एक प्रमुख दल ने पौड़ी के जिलाधिकारी को ज्ञापन देकर पशु क्रूरता कानून 1960 की धारा-28का हवाला देते हुए मेले में धारा-144 लगाए जाने को गैर कानूनी बताया । गौरतलब है कि धारा-28 के अंतर्गत धार्मिक अनुष्ठानों के लिए प्रतिबंधित पशुओं को छोड़ अन्य पशुओं की बलि कानूनन अपराध नहीं है ।
पर बलि क्यों..? क्या यह उचित है? क्या किसी की हत्या करना उचित है..? अगर कोइ किसी इंसान की हत्या करता है तो उसे जीवन कारवास या फाँसी की सजा का प्रावधान है किन्तु जानवरों की हत्या पर क्यों नही ? क्या वो प्राणी नही है क्या उनको जीने का हक नहीं है भगवान ने तो सबको एक समान जीवन एवं जीने का हक प्रदान किया है फिर ये भेद भाव क्यो?
उनकी हत्या इसलिये की जाती है क्योंकि वो मासूम गूंगे एवं लाचार है?? या वो प्रतिक्रिया देने मे असमर्थ है इसलिए?? पशु की हत्या करने वालो को सजा क्यों नही होती? जो एसे भेद भाव करे उसे इंसान कहते है..? क्या सच मे वो इंसान कहने लायक है? ये कैसा समाज  है जहाँ निर्दोष एवं लाचारों की बली दी जाती है और दोषियों की वह्हा वाही..! आखिर ये भेद भाव क्यों..? एसे विकृ्ति मानसिकता को क्या हम इंसानियत कह सकते है? ये बहुत बडी़ एवं गम्भीर सोचने वाली बात है..! आखिर कब तक निर्दोषों की बली होती रहेगी और हम एसे ही अपंगो की तरह हाथ पर हाथ धरे रहेगे..? सोचिये..!!
आइए सब मिल कर इस प्रथा को समाज से दूर करने का संकल्प लें.

धन्यवाद ..!!

© देव नेगी



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