गुरुवार, 7 मार्च 2013

आधुनिकता की दौर में लुप्त होते उत्तराखण्ड के लोक वाद्ययन्त्र :



हमारा उत्तराखण्ड लोक सांस्कृ्तिक एवं परम्पराओं क गढ़ है। यहाँ भिन्न भिन्न प्रकार की लोक कलाओं पर आधारित सांस्कृ्तिक एवं आध्यात्मिक  विरासत की झलक मिलती है,  यहाँ समस्त देवी देवता वास  हैं इसी लिए  उत्तराखंण्ड को देव भूमि कहलाता है , यानि कि उत्तराखण्ड देवों का गढ़ भी है कई पवित्र स्थल,  धाम इत्यादि यहीं स्थित है, जिनके दर्शन हेतु हर वर्ष देश विदेश से लाखों श्रधालु यात्री यहाँ आते है। जिससे हमारी गौरवता का अंदाजा लगाया जा सकता है, परन्तु वर्तमान समय मे स्थिति कुछ दयनीय हो गयी है, समय के साथ साथ सब कुछ बदलने लग गया है, और साथ मे हम खुद बदलने लग गये है जिससे हमारी परम्परा हमारी संस्कृ्ति कहीं न कहीं पीछे छूटती जा रही है, और यह इस बात का संकेत देता है कि हमारा आने वाला समय कैसा होगा। हम समय के साथ साथ सब कुछ धीरे धीरे भूलते जा रहे है,  इसका सबसे मुख्य कारण है पलायन.! पलायन के साथ साथ हम अपनी लोकसंस्कृ्ति को भी पीछे छोड़ते जा रहे हैं, और धीरे धीरे हमारी संस्कृ्ति की धरातल की मूल जडों को उखाड़ते जा रहे हैं..! उनमे से कुछ चीजे हैं जिनका अस्तित्व अब समाप्ति की और बढ रहा है, मुख्य रूप से हमारे लोक संस्कृ्ति की शान हमारे लोकवाद्य यन्त्र, जिनके बिना सब कुछ अधूरा प्रतीत होता है और यह सच भी है, उत्तराखंण्ड के लोक संगीत का इतिहास बहुत समृ्द्ध रहा हैं, पर्वतीय लोक संगीत हमारी लोकसंस्कृ्ति विरासत का आईना है, उत्तराखण्ड मे अनेक प्रकार से गायन एवं वादन किया जाता है, जो दो क्षेत्रों में बंटा हुआ है, उसमे से एक है क्षेत्र गढ़वाल एवं दूसरा क्षेत्र  कुमाऊं,  जो मिलकर गढ़वालीकुमाउंनी संस्कृ्ति संयोजन बनता है! और इस संयोजन मे मुख्य भूमिका निभाते है हमारे लोकवाद्य यन्त्र,  परन्तु दु:ख इस बात का है कि धीरे धीरे ये वाद्य यन्त्र लुप्त होते जा रहे है, जिन से हमारे संस्कृ्त, सभ्यता एवं परम्परा की पहिचान है अगर वही लुप्त हो जायेंगे तो हमारे संस्कृ्ति कैसे बचेगी..? आज कल के इस चकाचौदं एवं दिखावे की नकली रोशनी मे कहीं न कही हम अपनी परम्परा एवं पारम्परिक रीती रिवाजों को पीछे छोडते जा रहे हैं,  कई पीडि़यों से चली आ रही परम्परा अब अपने अन्तिम चरण मे है, और इन परम्पराओं जिंदा रखने वाले लोकवादक औजी, दास, धौंसिया (हुड़किया), घटल्या, डौरिया, बादी आदि लोग भी प्रोत्साहन की कमी  के कारण धीरे धीरे लुप्त की कगार पर है !

एक नजर उत्तराखण्डी वाद्ययंत्र एव उनके उपयोगो पर :

उत्तराखण्ड मे मुख्य वाद्ययंत्र जो हमारी संस्कृति का आधार है वो इस प्रकार हैं:-  ढोल, दमौ (दमाऊ) , भौंकर, हुणका (हुड़का), डौंर-थाली, मुरुली, मशकबीन, (बीनबाजा),  जौंल्या मुरुली एवं रणसिंगा आदि !

उत्तराखण्ड के मुख्य लोक वाद्ययन्त्र :



1-  ढोल : - 


ढोल उत्तराखण्ड के वाद्य यंत्रों मे एक प्रमुख वाद्य यंत्र है, यह ताँबे या पीतल के धातु से बना हुआ एक गोल बक्से के आकार का होता है, जिसके दोनों और जानवरो की खाल से बने पर्दे (पूणे) लगाये जाते है, फिर उन दोनों को डोरी के माध्यम से कसा (बाँधा) जाता है..! ढोल को एक से तरफ लकडी़ की बनी छणी से और एक तरफ हाथ से बजाया जाता है.! ढोल हर शुभ एवं मंगल कार्यों में प्रयोग किया जाता है, बिना ढोल के कोई भी मंगल कार्य शुभ एवं सम्पूर्ण नहीं माना जाता है। शादियों एवं विशेष धार्मिक कार्यक्रमो में मुख्य रूप से बजाया जाता है,  इसको वाद्यित करने वालों को दास या औजी कहा जाता है..!






2. दमौ (दमऊ) :- 

दमौ ढोल के साथ बजाया जाता है,  ढोल एवं दमौ दोनो अलग अलग नहीं बजाये जाते है, क्योंकि इन दोनो के मिश्रण से ही धुन एवं ताल बनता है, इन दोनों के संयोग से 52 तलों का निर्माण किया जाता है,! दमौ भी ढोल की तरह धातु से निर्मित होता है, परन्तु इसका आकार अलग होता है, यह तसैले (कटोरे) के आकर का होता है , इसके उपर भी  जानवरों की खाल का पर्दा लगाया जाता है, जो चमडी़ के द्वारा कसा जाता है.!  यह वाद्यक दासों द्वारा बजाया जाता है..।



3.भौंकर :-  

भौंकर ताँबे धातु से बना एक वाद्य यंत्र है, यह लगभग 3-4 मीटर लम्बे आकृति का होता है,  पीछे से संकरा और आगे से चौडे़ आकृति के इस यंत्र को विशेष महोत्सवों पर बजाया जाता है, यह ढोल एवं दमौ के साथ में बजाया जाता है, यह कोई भी बजा सकता है।








4. हुणका (हुडका) :-


हुणका (हुडका) एक विशेष प्रकार का वाद्य यंत्र है, यह काठ (लकडी़) से बना विशेषाकृति का होता है,  इसके दोनो ओर चमडे़ से बने गोल झिल्ली (पर्दे) लगाये जाते है,  इसका उपयोग भिन्न-भिन्न उत्सवों 
मे किया जात है,  मूल रूप से देवी देवताओं के जागर एमं पौराणिक देवताओं की गाथओं में इसका उपयोग किया जाता है !  इसके साथ ताल मिलाने के लिए विशेष प्रकार की थाली का प्रयोग किया जाता है, हुडके की धुन बहुत ही मन मोहक होती है । इसके वाद्यक को धौसिया या हुड़किया कहते है..!


5. डौ़र - थाली :-

डौर और थाली उत्तराखण्ड के प्रमुख वद्य यंत्रों मे से प्रमुख यंत्र हैं,  डौर लकडी़ का बना एक गोलाकार का बक्सा होता है जिसे दोनों तरफ से बजाया जाता है एक तरफ लकडी के बने विशेष प्रकार की छ्डी़ से और दूसरी तरफ हाथ से, डौंर के चारों तरफ बडे आकार के विशेष प्रकार के पीतल के गुंगरू लगाये जाते है जो धुन को और भी मनोनित करते है,  डौर- थाली का जागरों मांगलिक कार्यो एवं लोक पौराणिक देवताओं की गाथाओं मे प्रयोग किया जाता है, डौर के साथ थाली का तालमेल जरूरी होता है डौर और थाली दोनो एक साथ बजाये जाते है !  इन वाद्य यंत्रो को  बजाने वालो को हर जगह अलग अलग नाम से पुकारा जाता है, एक  स्थनीय भाषा अनुसार इनको घटल्या नाम से जाना जाता है ।





6. मशकबीन :-

मशकबीन उत्तराखण्डी वाद्य यंत्रो मे से एक प्रमुख वाद्य यंत्र है, यह खास कर शादियों मे शुभ अवसर पर बजाया जाता है,  इसमें एक साथ कई सुरों का समावेश होता है,  यह एक खास तरह का खाली ब्लाडर (थैला) की तरह होता है, इसमे अपने मुंह मे माध्यम से वायु का संचार किया जाता है,  यह वायु संचार जब का पूरा होती ही ब्लाडर फुल हो जाता है और इससे जुडें यंत्रो मे वायु का संचार होने लगता है  और फिर मधुर धुन का आवागमन होता है,




7. जौल्या (जौयां) मुरुली :- 

गढवाल एवं कुमाऊं मे बजाये जाने वाली ज्योलयां मुरुली उत्तराखण्डी वाद्य यंत्रो मे से प्रमुख यंत्र है, गढ़वाल एवं कुमाउं में जौंया का मतलब जुड़वा होता है,  यह दो सामान्य रिंगाल के नलियों को मिलाकर बनाया जाता है फिर इनमें अलग अलग छेद किये जाता है हर एक मे एक बडा़ एवं पाँच छोटे-छोटे छेद किये जाते है।  ऊंचाई क्षेत्रों मे पाये जाने वाले उत्तराखण्डी बाँस "रिंगाल" से निर्मित इस मुरुली को बजाने के लिए एक सामान्य मुरुली के अपेक्षाकृ्त ज्यादा सुर एवं स्वाश की आवश्यक्ता होती है।  इसमें सात सुरों की जगह सिर्फ पाँच धुनो का समावेश होता है, यह आम तौर पर कोई भी बना सकता है परन्तु  हर किसी वाद्यक से बजना मुश्किल होता है,  इसके लिए साँसो का निरन्तर प्रवाह जरूरी होता है, जो कि थोडा सा कठिन होता है,  इस विशेष वाद्य यंत्र को पहाडी़ क्षेत्रों के स्थानीय लोग, ग्वाले जंगलों में गायों के साथ लोक गीतों के तर्ज पर बजाते है जिसकी धुन मन को मुघ्ध कर देने वाली होती है ।



8. रणसिंगा :


रणसिंगा उत्तराखण्ड का एक प्रमुख वाद्य यंत्र है, यह आम तौर पर शुभ कार्यों के आरम्भ में वाद्यित किया जाता है..यह ताँबे के धातु से निर्मित किया जाता है, इसका एक छोर पतला एव दुसरा मोटा होता है..! इसका आकार नीचे से थोडा़ सीधा एवं उपर की ओर से  थोडा घुमावदार होता है ! हमारी विडम्बना देखिए आज के इस आधुनिकता के दौर में हम अपनी परम्परा, संस्कृ्ति-सभ्यता, रीति-रिवाज,   सब कुछ भूलते जा रहे है, यह बहुत दु:ख की बात है,  इस बारे मे गहरे चिन्तन की शक्त आवश्यक्ता है ।




 हमारी विडम्बना देखिए आज के इस आधुनिकता के दौर में हम अपनी परम्परा, संस्कृ्ति-सभ्यता, रीति-रिवाज,   सब कुछ भूलते जा रहे है, यह बहुत दु:ख की बात है,  इस बारे मे गहरे चिन्तन की शक्त आवश्यक्ता है।



धन्यवाद..!!


 छाया चित्र :  भिन्न -भिन्न जगहों से संग्रहित !

© देव नेगी 


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