सोमवार, 23 जुलाई 2012

लोकगाथा में रूपकुंड का इतिहास एवं परिचय प्रथम भाग



रूपकुंड 
रूपकुंड  :


उत्तराखण्ड भिन्न भिन्न संकृ्तियों एवं प्रकृ्तिक धरोहरो से सुसज्जित प्रदेश है प्राकृ्तिक सुन्दरता तो मानो कि भगवान ने खुद अपने हाथों से प्रदान की हो..! और इसके कई सबूत के तौर पर पौराणिक स्थलो के रूप मे हमारे सामने है और उन सब में एक जगह रूप कुंड है..!
गढ़वाल हिमालय के अन्तर्गत अनेक सुरम्य ऐतिहासिक स्थल हैं जिनकी जितनी खोज की जाय उतने ही रहस्य सामने आ जाते हैं। इन आकर्षक एवं मनमोहक स्थलों को देखने के लिये प्राचीन काल से वैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ताओं भूगर्भ विशेषज्ञों एवं जिज्ञासु पर्यटकों के क़दम इन स्थानों में पड़ते रहे हैं। उत्तराखण्ड मे इतने कितने ही रहस्यमयी स्थान है हो लोगों की बहुँच से काफी दूर है.

यहां उच्च हिमालय क्षेत्र के अन्तर्गत अनेक ताल एवं झील हैं जिनमें उत्तरांचल के चमोली ज़िले के सीमान्त देवाल विकास खांड में समुद्र तल से 16200 फुट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात यात्रा मार्ग पर नंदाकोट, नंदाघाट और त्रिशूल जैसे विशाल हिम पर्वत शिखरों की छांव में चट्टानों तथा पत्थरों के विस्तार के बीच फैला हुआ प्रकृति का अनमोल उपहार एवं अद्वितीय सौन्दर्य स्थान रूपकुंड एक ऐसा मनोरम स्थल है जो अपनी स्वास्थ्यवर्धक जलवायु, दिव्य, अनूठे रहस्यमय स्वरूप और नयनाभिराम दृश्यों के लिए जाना जाता है। यह रूपकुंड झील त्रिशूली शिखर (24000 फीट) की गोद में ज्यूंरागली पहाड़ी के नीचे 150-200 फीट ब्यास (60 से 70 मीटर लम्बी), 500 फीट की परिधि तथा 40 से 50 मीटर गहरी हरे-नीले रंग की अंडाकार (आंख जैसी) आकृति में फैली स्वच्छ एवं शांत मनोहारी झील है। इससे रूपगंगा जलधारा निकलती है। अपनी मनोहारी छटा के लिये यह झील जिस कारण अत्यधिक चर्चित है वह है झील के चारों ओर पाये जाने वाले रहस्यमय प्राचीन नरकंकाल, अस्थियां, विभिन्न उपकरण, कपड़े, गहने, बर्तन, चप्पल एवं घोड़ों के अस्थि-पंजर आदि वस्तुऐं।

यह झील बागेश्वर से सटे चमोली जनपद में बेदनी बुग्याल के निकट स्थित है। उत्तरांचल के उत्तर में हिमालय की अनेक चोटियों के बीच त्रिशूल की तीन चोटियां हैं। ये चोटियां गढ़वाल इलाके के चमोली ज़िले व कुमाऊं इलाके के बागेश्वर ज़िले की सीमा पर स्थित हैं। भगवान शिव का त्रिशूल माने जाने वाले हिमश्रंग त्रिशूल चोटी के बगल में ही रूपकुंड है। समुद्रतल से 4778 मीटर की ऊंचाई पर और नन्दाघुंटी शिखर की तलहटी पर स्थित रूपकुंड झील सदैव बर्फ़ की परतों से ढकी रहती है। अतः इसे हिमानी झील कहते हैं। इसे रहस्यमयी झील का नाम दिया है। म़ोढे की पीठ जैसी आकृति में इसके किनारे ख़डी चट्टानों पर सदैव जमी रहने वाली श्वेत बर्फ़ का अक्स झील के धवल जल में और जल की चंचल लहरों के बनते बिग़डते प्रतिबिम्ब बर्फ़ के दर्पण में झिलमिला कर इस स्थल की नैसर्गिक छटा को द्विगणित कर देते हैं। इसकी स्थिति दुर्गम क्षेत्र में है। झील से सटा ज्यूरांगली दर्रा (5355 मीटर) है। वैसे, शिवालिक पर्वतमाला में मणि की भांति गुंथा हुआ यह अति प्राचीन पौराणिक तीर्थ उन पर्वतारोहियों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है, जो जान जोखिम में डालकर भी विविध रूपा सृष्टि के ग़ूढ तत्वों को खोज लेने हेतु सतत प्रयत्नशील रहते हैं।

रूपकुंड की उत्पत्ति पर पौराणिक कथाए :
माँ नन्दा देवी की डोली

हर बारहवें वर्ष नौटी गांव के हजारों श्रद्धालु तीर्थ यात्री राजजात  यात्रा लेकर निकलते हैं। नंदादेवी की प्रतिमा को चांदी की पालकी में बिठाकर रूपकुंड झील से आचमन करके वे देवी के पावन मंदिर में दर्शन करते हैं। इस यात्रा से संबंधित कथा के अनुसार अपने स्वामी गृह कैलाश जाते समय अनुपम सुंदरी हिमालय (हिमवन्त) पुत्री नंदादेवी जब शिव के साथ रोती-बिलखती जा रही थी मार्ग में एक स्थान पर उन्हें प्यास लगी। नंदा-पार्वती के सूखे होंठ देख शिवजी ने चारों ओर देखा परन्तु कहीं पानी नहीं दिखाई दिया, उन्होंने अपना त्रिशूल धरती पर मारा, धरती से पानी फूट पड़ा। नंदा ने प्यास बुझाई, लेकिन पानी में उन्हें एक रूपवती स्त्री दिखाई दी जो शिव के साथ बैठी थी। नंदा को चौंकते देख शिवजी समझ गये, उन्होंने नंदा से कहा यह रूप तुम्हारा ही है। प्रतिबिम्ब में शिव-पार्वती एकाकार दिखाई दिये। तब से ही वह कुंड रूपकुंड और शिव अर्द्धनारीश्वर कहलाये। यहां का पर्वत त्रिशूल और नंद-घुंघटी कहलाया, उससे निकलने वाली जलधारा नन्दाकिनी कहलायी।
पुराण कथाओं के अनुसार यहां जगदम्बा, कालका, शीतला, सतोषी  आदि नव दुर्गाओं ने महिषासुर का वध किया था।

लाटू देवता - क्षेत्रीय देवता:

लाटू देवता, वाण गाँव 


लाटू देवता का मंदिर वाण का प्रमुख आकर्षण है। लाटू कैदखाने में रखे गये देवता हैं और 12 वर्ष में एक बार चंद घंटों के लिए केवल तभी मुक्त किये जाते हैं। जब नंदा राजजात के दौरान देवी नंदापार्वती की डोली त्रिशूल पर्वत पर ले जाती है। लाटू को मिली कैद की इस सज़ा के मूल में किंवदंती इस प्रकार है कि शिवजी के साथ विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद देवी नंदा की डोली कैलाश ले जाई रही थी, तो अन्य भाईबंधुओं के साथ चचेरे भाई लाटू भी उन्हें विदाई देने के लिए साथ-साथ चले। किंतु वाण पहुंचते पहुंचते उनका कंठ प्यास के कारण बुरी तरह सूखने लगा। इधर-उधर द़ौड लगाने के बाद उन्हें दूर पर एक मकान दिखलाई दिया। मकान का मालिक सोया प़डा था। लाटू ने उसे झिंझ़ोड कर जगाया और पानी मांगी। नींदे से मकान मालिक ने एक कोने में रखे मटके की ओर इशारा कर दिया, जिसमें भारी मदिरा देखकर उनका मन ललचा गया और पूरा मटका मुंह से लगाकर गटागट पी गये। मद्य ने भी अपना रंग जल्दी ही दिखलाया। बस, लगे वह उत्पात मचाने। उनकी इस हरकत से क्षुब्ध होकर देवी नंदा ने उन्हें वहीं कैद कर डालने का आदेश दे डाला। तब से बेचारे यहीं बंद प़डे हैं। वैसे, लाटू इस क्षेत्र के सर्वमान्य देवता है। उनका नाम लेकर मनौतियां तक मांगी जाती है।


रूपकुंड झील में नरकंकाल और अस्थियां :


झील के पास नर कंकाल 
रूपकुंड झील वर्षों तक दुर्गम होने के कारण अज्ञात ही रहा। रूपकुंड के आसपास पड़े अस्थियों के ढेर एवं नरकंकालों की खोज सर्वप्रथम वर्ष 1942 - 43 में भारतीय वन निगम के एक अधिकारी द्वारा की गई। वन विभाग के अधिकारी मढ़वाल यहां दुर्लभ पुष्पों की खोज करने गए थे। एक रेंजर अनजाने में झील के भीतर किसी चीज से टकराया। देखा तो कंकाल पाया। खोज की तो रहस्य और गहरा गया। झील के आसपास और तलहटी में नरकंकालों का ढेर मिला। अधिकारी के साथियों को ऐसा लगा, जैसे वे किसी दूसरे ही लोक में आ गए हों। उनके साथ चल रहे मजदूर तो इस दृश्य को देखते ही भाग खड़े हुए। इसके बाद शुरू हुआ वैज्ञानिक अध्ययन का दौर। 1950 में कुछ अमेरिकी वैज्ञानिक नरकंकाल अपने साथ ले गए।

अनेक जिज्ञासु-अन्वेशक दल भी इस रहस्यमय रूपकुंड क्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा सम्पन्न कर चुके हैं। भारत सरकार के भूगर्भ वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के एक दल ने भी दुर्गम क्षेत्र में प्रवेश कर अपने विषय का अन्वेशण व परीक्षण किया था। उप्र वन विभाग के एक अधिकारी ने 1955 के सितम्बर में रूपकुंड क्षेत्र का भ्रमण किया व कुछ नरकंकाल, अस्थियां, चप्पल आदि वस्तुऐं एकत्रित कर लखनऊ विश्वविद्यालय के मानव शास्त्र विभाग के प्रसिद्ध मानव शास्त्री (नृंशशास्त्री) एवं विभाग के डायरेक्टर जनरल डा. डी.एन.मजूमदार को परीक्षणार्थ सौंप दी थीं। डा. मजूमदार ने गढ़वाल पर्वतीय क्षेत्र का व्यापक भ्रमण कर और वहां से अस्थियां आदि कुछ सामग्री एकत्रित कर ले गये। भ्रमण कर बताया कि यह घटना तीन-चार सौ वर्ष से कहीं अधिक पुरानी है और ये अस्थि अवशेष किसी तीर्थ यात्री दल के हैं। डा. डी.एन.मजूमदार ने 1957 में यहां से कुछ मानव हड्डियों के नमूने अमेरिकी मानव शरीर विशेषज्ञ डा. गिफन को भेजे जिन्होंने रेडियो कार्बन विधि से परीक्षण कर इन अस्थियों को 400 - 600 साल पुराना बताया। ब्रिटिश व अमेरिका के वैज्ञानिकों ने रूपकुंड क्षेत्र के मानव कंकालों के रहस्यों को सुलझाते हुए विश्वास व्यक्त किया कि ये कंकाल लगभग 600 वर्ष पुराने हैं। यहां के अवशेषों में तिब्बती लोगों के ऊनी कपड़े के बने बूंट, लकड़ी के बर्तनों के टुकड़े, घोड़े की साबूत रालों पर सूखा चमड़ा, टूटी छंतोलियों के रिंगाल और चटाइयों के टुकड़े हैं। याक के अवशेष भी मिले हैं। याक की पीठ पर तिब्बती अपना सामान लाद कर यात्रा करते थे। इन अवशेषों में ख़ास वस्तु बड़े-बड़े दानों की 'हमेल' है, जिसे लामा स्त्रियां पहनती थीं।
नर कंकाल एवं पुराने चप्पल .

बाद में अनेक अन्वेषकों और पर्वतारोहियों ने इस स्थान पर कई बार जाकर इन शवों के बारे में अनुमान लगाए। आखिरकार रूपकुंड के वैज्ञानिक पहलू को प्रकाश में लाने का श्रेय प्रसिद्ध पर्यटक एवं हिमालय अभियान के विशेषज्ञ एवं अन्वेशक साधक विद्वान स्वामी प्रणवानन्द को है जो अनेक बार रूपकुंड गये और उन्होंने रूपकुंड के रहस्य का सभी दृष्टि से अध्ययन किया। स्वामी जी ने सन् 1956 में लगभग ढाई माह तथा सन् 1957 व 58 में दो-दो माह रूपकुंड में शिविर लगाकर नरकंकाल, अस्थियां, बालों की चुटिया, चमड़े के चप्पल व बटुआ, चूड़ियां, लकड़ी व मिट्टी के बर्तन, शंख के टुकड़े, आभूषणों के दाने आदि पर्याप्त वस्तुऐं एकत्रित कीं। उन्होंने ये वस्तुऐं वैज्ञानिक जांच हेतु बाहर भेजीं। यहां से कंकालों को बाहर ले जाकर 1957 से 1961 तक शोध परीक्षण किया जाते रहे। वैज्ञानिक शोध के आधार पर ये नरकंकाल, अस्थियां आदि लगभग 650 वर्ष (750 वर्ष पूर्व) पुराने साबित हुए हैं। स्वामी प्रणवानन्द ने अपने अध्ययन के निष्कर्ष में रूपकुंड में प्राप्त अस्थियां आदि वस्तुऐं कन्नौज के राजा यशोधवल के यात्रा दल के माने हैं जिसमें राजपरिवार के सदस्यों के अलावा अनेक दास-दासियां, कर्मचारी तथा कारोबारी आदि सम्मिलित थे। बताया गया है कि हताहतों की संख्या कम से कम तीन सौ होगी। पशुओं का एक भी अस्थि पंजर नहीं पाया गया। स्वामी प्रणवानन्द जब पुन: चौथी बार अन्वेशण हेतु रूपकुंड गये तो बताया गया कि उप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. सम्पूर्णानन्द द्वारा प्रदत्त नाव में बैठकर उन्होंने झील की परिक्रमा की। यह झील लगभग 12 मीटर लम्बी, 10 मीटर चौड़ी व 2 मीटर गहरी है व झील का धरातल प्राय: सर्वत्र समतल प्रतीत हुआ है।

वर्ष 2004 में भारतीय और यूरोपीय वैज्ञानिकों के एक दल ने भी संयुक्त रूप से झील का रहस्य खोलने का प्रयास किया। इसी साल नेशनल ज्योग्राफिक के शोधार्थी भी कुछ नमूने इंग्लैंड ले गए। बावजूद इसके गुत्थी सुलझ नहीं पाई। तीस साल तक नरकंकालों पर शोध के बाद मानव शास्त्री विलियम एस. साक्स सिर्फ इतना बता पाए कि ये कंकाल आठवीं सदी के हैं।

(स्रोत: भिन्न भिन्न जगहों से ली गयी जानकारी के आधार पर)

बाकी जानकारी अगले लेख में....
धन्यवाद. 

 सम्पर्क :
देव नेगी
http://devdlove.blogspot.com 




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