बुधवार, 25 जुलाई 2012

लोकगाथा में रूपकुंड का इतिहास एवं परिचय द्वितीय भाग


Posted by देव नेगी

रूपकुंड और त्रिशूल शिखर :
त्रिशूल शिखर
रूपकुंड रहस्य की ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक आधार पर जांच पड़ताल के बाद तथा घाटी के आखिरी गांव बाण एवं अन्य गाँव  के वृद्ध लोगों और लोकोक्तियों एवं लोक गीतों  के अनुसार यह निष्कर्ष निकाला जा चुका है कि चौदहवीं शताब्दी (12वीं शताब्दी) में तत्कालीन कन्नौज की महारानी बल्लभा द्वारा अपना अपमान किये जाने से देवी नंदापार्वती कुपित हो उठी। इसके बाद ही सारे राज्य पर अकाल की छाया मंडराने लगी तथा अनेक प्राकृतिक प्रकोप होने लगे। कुएं सूख गये। धरती फट प़डी। पशुपक्षी और प्रजनन त्राहि-त्राहि कर उठे। अचानक आई इस विपत्ति से छुटकारा पाने के लिए राजा यशधवल (यशोधवल) ने यज्ञादि जितने भी अनुष्ठान किये व्यर्थ ही गये। तब, नंदा पार्वती ने उसे स्वप्न में दर्शन देकर कहा, ‘यशधवल’ धुर उत्तर में त्रिशूल एवं नंदाघुंघटी नाम की दो पर्वत चोटियाँ हैं। इनमें से त्रिशूल भगवान शिव का प्रतिरूप है, तो नंदा घुंघटी साक्षात में स्वयं इन दोनों से अलग-अलग प्रवाहित होने वाली दो जल धाराएं घाटी में जिस स्थल पर गिरकर नंदाकिनी नदी का रूप धारण करती हैं, ठीक वहीं स्थित होमकुंड में पूजा अर्चना कर तू, जब तक मेरी अभ्यर्थना नहीं करेगा, तब तक इस विपत्ति से छुटकारा नहीं पा सकेगा। और यहाँ ये बताना चाहुँगा कि त्रिशूल पर्वत एवं नन्दा घुंघटी आज भी साक्षात  बिराजमान है..!
राजा यशधवल ह़डब़डाकर तुरंत उठ बैठा। आनन-फानन में देवी का जाप कर जाने का डंका पिटवाया गया। फिर तो क्या राजा रानी, मंत्री और क्या प्रजानन, सभी देवी नंदापार्वती की जाप करने निकल प़डे। यात्रियों का यह विशाल दल जब बेंदिनी बुग्याल से आगे पहुंचा, तो एक उपयुक्त स्थान देखकर प़डाव डालने के बाद नृत्य संगीत व मदिरा पान के आयोजन की तैयारी की जाने लगी। इस पर राज पुरोहित ने यशधवल को समझाया, ‘हे राजन भजन कीर्तन की जगह देवभूमि पर रासरंग का आयोजन करना उचित प्रतीत नहीं होता। कृपया, अपना यह विचार तुरंत त्याग दें।’ अट्टहास कर राजा यशधवल ने राज पुरोहित की खिल्ली उ़डाते हुए जवाब दिया, ‘राज पुरोहित जी, आप कहीं एकांत देखकर खूब संकीर्तन करें। हमारे देवता तो नृत्य संगीत के आयोजन से ही प्रसन्न होंगे।’ परंतु उधर, राजा का संकेत पाकर राजनर्तकियों ने जैसे ही नाचना प्रारंभ किया, वैसे ही पत्थर की मूर्तियों में परिवर्तित हो गई। इस घटना से यशधवल बेहद घबराया। किसी प्रकार रात वहीं गुजारने के बाद जब वह अपने दलबल सहित रूपकुंड पहुंचा, तो अनायास ही रानी बल्लभा को प्रसव प़ीडा ने आ घेरा और उसने शीघ्र ही वहीं एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। कन्या रत्न को देवी का वरदान समझकर राजा यशधवल इतना हर्षाया कि पूर्व रात्रि को नर्तकियों के साथ घटित पूरी दुर्घटना को भूलकर वह पुनः रासरंग में डूब गया। बस, फिर क्या था। पलक झपकते ही तारों भरा सारा आकाश काले-काले बादलों से उम़डने घुम़डने लगा। हवा झंझावात बन गई। बिजली की घनघोर गरज के साथ इतनी मूसलाधार वर्षा हुई कि प़डाव के न केवल सारे डेरे तम्बू उख़ड गये, बल्कि बेगवती जल धारा के साथ-साथ बहकर राजा रानी सहित सभी यात्रीगण भी रूपकुंड में जा समाए और इस प्रकार अपने अतीत को दुहराता कन्नौज एक बार फिर उज़ड गया। अत: ये नरकंकाल व अस्थियां आदि वस्तुऎं उसी समय के बताये गये हैं। कुछ लोग तिब्बत से आये यात्री दल के अवशेष बताते हैं।  

रहस्यमय नरकंकालों से अटी पडी रूपकुंड झील अपनी प्राकृतिक संरचना, भौगोलिक परिवेश और प्रचलित किंवदंतियों के कारण वर्तमान में विश्व भर के लिए प्रबल जिज्ञासा, असामान्य कौतुहल तथा विषद वैज्ञानिक परिचर्चा की महत्त्वपूर्ण विषय वस्तु बन गई है।
लोकगाथाओं व लोकगीतों से शुरू हुई रहस्य कथा रेडियो कार्बन विधि की जांच के बाद भी खत्म नहीं हुई। स्थिति जो कुछ भी हो लेकिन इतिहासकारों एवं वैज्ञानिकों के लिये रूपकुंड रहस्य एक बहुचर्चित विषय बन गया है। इस बीच इन पांच-छह दशकों में इस क्षेत्र में जितनी भी खोज तथा अन्वेशण कार्य किये गये हैं उसमें विशेषज्ञ एकमत व निष्कर्ष पर नहीं पंहुच पाये हैं। लेकिन अनेक अन्वेशक व खोजकर्ता प्राय: इस निष्कर्ष पर तो अवश्य पंहुचे हैं कि ये नरकंकाल व अस्थियां आदि वस्तुऐं छह-सात सौ वर्ष पुराने रहे होंगे।
यह रहस्यमय झील ग्रीष्मकाल वर्षा ऋतु के तीन-चार महीने (मई से अक्टूबर  तक) बर्फ़ पिघलने से दिखाई देती है और शेष अवधि में हिमाच्छादित रहती है। आज भी रूपकुंड के आसपास यत्र-तत्र व किनारों पर छुटपुट मानव कंकाल व अस्थियां के टुकड़े पड़े दिखाई देते हैं लेकिन पर्यटकों, अन्वेशकों आदि भ्रमणकर्ताओं के आगमन के बाद अब इस क्षेत्र में ये वस्तुऐं धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं। यह गतिविधि पुरातात्विक स्थल रूपकुंड के इतिहास को नष्ट करती रही है।
रूपकुंड झील यात्रा :

रूपकुंड तक का मार्ग अत्यंत मोहक और प्राकृतिक छटाओं से भरा है। घने जंगल, मखमली घास के चरागाह, फूलों की बहार, झरनों नदी-नालों का शोर, बड़ी-बड़ी गुफाएं, गांव, खेत सर्वत्र एक सम्मोहन पसरा हुआ है। गहरी खामोशी में डूबी चट्टानों के बीहड़ जमघट में भी एक आनन्द छुपा है।
शीतकाल में रूपकुंड यात्रा का अभियान नितांत असंभव है। वर्षा ऋतु में भी ऐसा प्रयास मृत्यु को आमंत्रण देने जैसी ही बात होगी, जबकि मई और जून की भीषण गर्मी वाले दिन भी पर्यटन के लिए तभी अनुकूल सिद्ध होंगे कि जब ‘ट्रेकिंग’ की आधुनिक साजसज्जा से युक्त होकर सामूहिक रूप से आरोहण किया जाये।
रूपकुंड की यात्रा के लिए जून उत्तरार्द्ध से सितम्बर उत्तरार्द्ध का समय सर्वोत्तम होता है क्योंकि इसके बाद इस पूरे क्षेत्र में हिमपात का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है जिससे पर्यटकों को यात्रा के लिए अनुकूल परिस्थितियां दुर्लभ हो जाती हैं।

रूपकुंड पंहुचने के लिए मार्ग :

रूपकुंड पंहुचने के लिये भिन्न मार्ग है उनमें से प्रमुख मार्गों का परिचय निम्न्वत है.
इस विश्वप्रसिद्ध रहस्यमय रूपकुंड स्थान में पंहुचने के लिये मुख्यत:
कर्णप्रयाग से थराली, देवाल, वाण, गैरोलीपातल, वेदिनी बुग्याल, कैलोविनायक, रूपकुंड (लगभग 155 किमी)।
नन्दप्रयाग से घाट, सुतोल, कनोल, वाण, वेदिनी बुग्याल, रूपकुंड। ग्वालदम से देवाल, वाण, वेदिनी बुग्याल, रूपकुंड।
हरिद्वार से लगभग 350 किमी की दूरी पर स्थित रूपकुंड तक पहुंचने के लिए कर्णप्रयाग होते हुए बळ्डग़ाड तक (कुल 222 किमी) बस अथवा कार द्वारा सफर किया जा सकता है। कर्ण प्रयाग से पिण्डारी नदी के किनारे-किनारे थराली होते हुए देवल वहां से 13 कि.मी. बकरीगढ़ तक कच्चा मार्ग है। रूपकुंड पहुंचने के लिए अंतिम बस स्टेशन बकरीगढ़ (बगरीगाड़) है। यहां से रूपकुंड तक 41 किमी की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। बगरीगाड़ में पोर्टर गाइड मिल जाते हैं, यहीं से इन्हें साथ ले चलना बेहतर रहता है। खाने-पीने, पहनने का पर्याप्त सामान लेकर ही ट्रैकिंग शुरू करनी चाहिए। बग़डग़ाड से प्रारम्भ होती है सीधी ख़डी च़ढाई और फिर दुरुह पगडंडियां। बकरीगढ़ से 3 कि.मी. मुन्दौली गांव होते हुए वा 7 किमी का फासला तय करने के बाद आती है, लौहजंग सुरम्य एवं पौराणिक स्थली, जहां पहुंचते-पहुंचते वैसाख व जेठ के गर्म थप़ेडों से त्रस्त यात्री को शीतल हवा के स्पर्श से अथाह आनंद की अनुभूति होने लगती है। लौहजंग से रूपकुंड के लिए दो रास्ते जाते हैं। एक वाण से होकर, दूसरा बांक से गुजरते हुए। एक तीसरा रास्ता और भी है, जो घने जंगल की ओर फटता है, जिस पर च़ढते उतरते नौ किमी का रास्ता तय करते हुए ‘भैंकल ताल व ब्रह्मताल’ नामक पर्यटन स्थल प़डते हैं। फिर, गुंजान जंगलों से बाहर निकलते ही रंगबिरंगे चित्ताकर्षक फूलों व मखमली घास से लदेफंसे तितली, बुग्याल, चारागाह (ऊंचाई 10000 फुट) की मनोरम छटा बरबस ही पर्यटकों का मन मोहने लगती है। लेकिन, रूपकुंड यात्रा की दृष्टि से यह रास्ता न केवल विषम है, वरन्‌ थ़ोडा लम्बा भी प़डता है।
प्रकृति की अनूठी कृति रूपकुंड का अवलोकन करने जाने के लिए श्रीनगर, कर्णप्रयाग तथा देवाल होते हुए भी जाया जा सकता है, लेकिन यदि ट्रैकिंग के रूप में ग्वालदम से पदयात्रा की जाए तो पर्यटक उस क्षेत्र के ग्रामीण जनजीवन, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत तथा अनछुए स्थलों से जुड़े विशिष्ट अनुभवों से ओत–प्रोत होकर लगभग 10 दिन की अवधि में रूपकुंड पहुंचता है। पर्यटक तीन दिन की पदयात्रा के प्रथम चरण में मुंदोली तथा बाण होते हुए लगभग 70 किमी की दूरी तय करने के पश्चात वेदनी बुग्याल पहुंचते हैं।
वाण होकर रूपकुंड जाने का कुछ अलग ही आनंद है। लौहजंग (ल्वाजिंग्) से 15 किमी के फासले पर स्थित यह चित्रमयी गांव धुर उत्तर में ग़ढवाल की सीमांत बस्ती है, जिसका मुख्यालय चमोली है। यहां के निवासी चरवाहे हैं, जो ग्रीष्म ऋतु में अपने पशुओं को लेकर बेदिनी बुग्याल चले जाते हैं। दुमंजिले तिमंजिले मकानों के निर्माण की जो शैली यहां अपनाई गई हैं, ग़ढवाल में वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। ख़डे ढलानों पर बहती बेगवती नदी के किनारे चकचक करती पन चक्कियों का शोर, शहरी कोलाहल से ऊबे पर्यटक को अद्‌भुत आनन्द प्रदान करता है। यहां ग़ढवाल मंडल विकास निगम का रेस्ट हाउस भी है और डाक बंगला भी। बाज़ार है तो छोटा, किंतु आवश्यकता की प्रायः सभी चीजें मिल जाती हैं।
लौहजंग (ल्वाजिंग्) से प्रारम्भ हुए बांस और बुरांस के जंगल की सघनता वाण से आगे गहरी होने लगती है। प्रत्येक दस-पन्द्रह क़दम पर म़ोड लेती हुई ऊब़ड-खाब़ड संकरी व फिसलन भरी पगडंडी इस क़दर बल खाये हुए कि जहां नजर चूकी, दुर्घटना घटी। बीच-बीच में गधेरो (बरसाती नदी) को पार करने की मुसीबत ऊपर से जंगल का नाम हैगैरोली पातल, जिसे पार करते ही बेंदिनी बुग्याल का दिलकश नजारा सहसा ही मन प्राणों को गुदगुदा उठता है। यहां मखमली हरी घास के मैदान हैं जिन्हें कश्मीर में सोनमर्ग और गुलमर्ग जैसे नामों से जाना जाता है। समुद्रतल से 2400 मीटर (चारागाह ऊंचाई 12000 फुट) की ऊंचाई पर पसरा हुआ वेदनी बाग़ एशिया के प्रमुख विशाल बागों में से एक है। मीलों तक फैली रेशमी घास तथा नाना प्रकार के ख़ूबसूरत फूलों से फूटती सुगंध का स्पर्श कर इठलाती हवा जैसे सांस-सांस में रम जाती है। यहां पहुंचने पर पर्यटक की थकान पल भर में उड़न छू हो जाती है और वह ताजगी से सराबोर होकर अनोखी स्फूर्ति का अनुभव करता है। उसे यहां असीम सुखद आनंद की अनुभूति होती है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र विभिन्न रंग–बिरंगे पुष्पों की अनेक प्रजातियों तथा नाना प्रकार की औषधियुक्त दुर्लभ जड़ी–बूटियों से भरा पड़ा है जहां पर्यटक को स्वतः ही स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो जाता है। कहा जाता है कि वेदों की रचना यहीं पर की गई थी। यत्र-तत्र बहते ध्वजधार वाले झरने जहां इस चारागाह के अपलक सौन्दर्य में श्री वृद्धि करते हैं, वहीं बीचोंबीच स्थित ‘वैतरणी’ नाम का ताल भारतीय संस्कृति के वांग्मय की दिव्य धरोहर बन गया है। यहां 4 – 4 फुट के आकार वाले लघु मंदिरों की श्रृंखला पर्यटक को श्रद्धा एवं भक्ति से भावविभोर कर देती है। पौराणिक मान्यता यह है कि यहां मौजूद एक छोटे कुंड में पूर्वजों के पिंड दान कर देने से उन्हें तत्काल मोक्ष मिल जाता है।

बैदिनी बुग्याल  :

यों ही वादियों के मनोरम दृ्श्यों के आगोश मे चलते ललते मन को मोह लेने वाला दृ्श्य बैदिनी बुग्याल के रूप मे आता है. यहाँ पर आकर प्रयटक सारी थकान भूल जाता है और प्रकृ्ति के इन सुन्दर वादियों में खो जाता है. और  अगले 18 किलोमीटर की पदयात्रा के बाद पर्यटक रूपकुंड के पास पहुंच जाता है। बैदिनी के बाद च़ढाई बिल्कुल सपाट और बेहद तीखी हो जाती है। कहीं कहीं तो पगडंडी के दोनों ओर हजारों फुट गहरी खाइयां है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से सांस फूलने लगती है। चित्रांकित घाटियों एवं पर्वतशिखरों पर लहराती महीन कोहरे की पारदर्शी पर्व तथा हवा में घुली हुई ब्रह्म कमलों तथा विभिन्न प्रकार की ज़डी बूटियों की मादक गंध शिराओं में नशासा बनकर बहने लगती है। ऐसे मनहरन वातावरण में एकएक क़दम ब़डे मनोयोग से फूंक-फूंक कर चलना प़डता है। रात्रि प़डाव के लिए पातुर नचैणियां सर्वाधिक उपयुक्त स्थल है। यहां ल़ुढकी प़डी तीन चट्‌टानों में परिलक्षित पूर्ण स्त्री आकृतियां रूपकुंड से ज़ुडकर उसके रहस्य को और भी अधिक गहरा देती है। धुंध की चादर यहां मोटी हो जाती है और थ़ोडी-थ़ोडी देर बाद बूंदाबांदी होने लगती है। यात्रा का यह अन्तिम प़डाव होता है।
इस दिव्य कुंड की अथाह गहराई, कटोरेनुमा आकार तथा चारों ओर बिखरे नर कंकाल व वातावरण में फैले गहन निस्तब्धता से मन में कौतूहल व जिज्ञासा का ज्वार उत्पन्न हो जाता है। रूपकुंड के रहस्य का प्रमुख कारण ये नर कंकाल ही हैं जो न केवल इसके इर्द–गिर्द दिखते हैं बल्कि तालाब में इनकी परछाइयां भी दिखाई पड़ती हैं। इन अस्थि अवशेषों के विषय में क्षेत्रवासियों में अनेक प्रकार की किवदन्तियां प्रचलित हैं जिन्हें सुनकर पर्यटक रोमांचित हो उठता है। वर्षों से पुरातत्ववेत्ता व इतिहासकार इन नर कंकालों के रहस्य का पता लगाने में जुटे हैं लेकिन अब तक कोई ठोस और सर्वमान्य हल नहीं निकाल पाए हैं।
सम्पूर्ण उत्तराखण्ड  को प्रकृति ने अपने विपुल भण्डार से अद्भुत सौंदर्य देकर काफ़ी समृद्ध बनाया है जिसका लुत्फ उठाने के लिए देश–विदेश के हजारों पर्यटक हर वर्ष यहां आते हैं। लेकिन मौजूदा पर्यटन स्थलों में बहुत से स्थान अछूते पड़े हैं जिनके विषय में पर्यटन विभाग सड़कों के किनारे सम्बंधित स्थलों के विवरण दर्शाते साइनबोर्ड लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है, रूपकुंड भी इन्हीं में से एक है।
कालू विनायक – (भगवान गणेश की प्रतिमा)
कालू विनायक 

तब, प्रारंभ होती है एकदम घुमावदार बेहद ख़डी विकट च़ढाई, जिस पर रेंगते हुए ब़ढना भी बिना पर्याप्त प्रशिक्षण के असंभव है। राह में प़डते हैं, कालू विनायक। किसी आदि कलाकार द्वारा चट्टान के निकट काले भाग को तराश कर निर्मित की गई यह गणेश प्रतिमा संभवतः संसार भर में अद्धितीय है।  कहा जाता है कि भगवान गणेश की यह मूर्ति आदिकाल  से यहाँ पर स्थापित है. इसका इतिहास भी किसी को पूर्णत्या पता नहीं है. स्थानीय लोगों के मान्यता अनुसार रूप कुंड जाने वाले हर यात्री को गणेश भगवान की इस प्रतिमा की परिक्रमा, पूजा करना और इसे छूना अनिवार्य था ताकि जो भी आगे जाये उसका मन चित शुद्ध हो जाए! यदि कोई इसकी अवहेलना करता तो आगे जाकर आने वाली ज्योंरा को गली पास नहीं कर पाता!  इस प्रतिमा के बारे मे यह मान्यता भी है कि जो भी इसे श्रद्धा पूर्वक उठाने की कोशिस करता है तो उठा लेता है अन्यथा कोई इसे हिला तक नहीं पाता.  रूपकुंड यहाँ से कुल छह किमी दूरी पर है.
बकोवासा एवं  ज्योंरा गली :
फिर आगे रूपकुण्ड के लिए सीदे रास्ते के जरिए बकोवासा पहुँच जाते है  यह रस्ता सीदे ही तय करना पड़ता है फिर बकोवासा से सीदी चढाई का कठिन  टूटा फूटा मार्ग तय करने के बाद ज्योंरा गली पर आते है ये गली बडी़ संकरी एवं चट्टानूमा है इस गली को पार करने के पश्चात रूप कुण्ड के कुछ और भी करीब पहुँचने का  अहसास मह्सूस होता है.  ज्योंरा गली के बारे मे कहा जाता है कि इसे हर कोई पार नहीं कर पाता है इसी कारण कई लोगों को यही से वापिस लौटना पड़ता है।
रूपकुंड

रूपकुंड  :
ज्योंरा गली को पार करते ही मन में एक अजीब सी उमंग दौड़ती है ऎसा महसूस होता है मानो बस यही दुनियाँ की सबसे खूबसूरत जगह है  इंसान खुद को ही भूल जाता है.  इसको बयां नहीं किया जा सकता सुन्दर वादियाँ प्रकृ्ति की सुन्दरता एवं मन को मोह लेने वाले दृ्ष्य. इंसान को भावुक बना देते हैं.  रास्ते मे कई जगह मानव कंकाल एवं अन्य चीजें नजर आती है जो कई वर्षों से एसे पडे़ हुए हैं.  फिर कुछ दूरी पर रूपकुंड के दर्शन करके सारी थकान मानो गायब ही हो जाती है और इंसान अपने को धन्य मानता है.! रूपकुंड के आस पास भी मानव कंकाल के अवशेष दिखने को मिलते है.! फिर कई धार्मिक लोग यहाँ अपनी मनोकामनाएं लेकर पूजा करते है. और पर्यटक प्रकृ्ति के इस अदभुत नजारे का लुफ्त उठाते हैं..!
धन्यवाद..!!
नोट :  (स्रोत: भिन्न भिन्न जगहों से ली गयी जानकारी के आधार पर  )


 सम्पर्क :

!^ देव नेगी ^! 
http://devdlove.blogspot.com 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें