शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

पलायन !!! मजबूरी या दुर्भाग्य ..!!




एक तरफ शहरों की चकाचौंद तो दूसरी ओर् बर्फीले पहाड़ सुन्दर गाँवों की सालीनता , हरे भरे पेडो़ की ठण्डी छाँव,  शकून की जिंदगी इनमें से आप किसका चुनाव करेंगे??
  जी हाँ यह एक महत्वपूर्ण सवाल है, आज कल शहरों की इस भागदौड़ की जिन्दगी में जहाँ व्यक्ति के पास खुद के लिए समय का अभाव होता जा रहा है ! वहीं दूसरी ओर अभी भी पहाडी़ गाँवों में सकून की जिन्दगी का आनन्द है,  शहरों की इस हालात से अन्जान कई लोग हर दिन गाँवो से शहर की और रुख करते है,  अपने साथ  मन में कई प्रकार के सपने संजो कर लाते है, परन्तु उनको यह पता नहीं होता कि वो शहरों की सच्चाई से कोशों दूर है !! सक्सर जैसा दिखता है वैसा होता नही है, खौर .. अपने  सपनो को हकीकत की राह दिखने के लिए शहर की ओर रुख करने के बाद जब शहर की हकीकत से रूबरू होता है तो व्यक्ति  खुद को कोशने लगता है, अपने अनुरूप काम न मिलने पर मजबूरन अपने आदर्शो का त्याग करके उसके बिपरीत अन्य कार्यों को  करने के लिए वाद्य हो जाता है, और जिस कारण जीवन मैं भटकाव की स्थिति पैदा हो जाती है ! फिर वहीं से सुरू होता है जीवन का संघर्ष !

अब यहाँ सावाल यह उठाता है की आखिर यह "पलायन क्यों"?  "इसका कारण क्या"?  "जिम्मेदार कौन"?  एवं इसको रोकने क्या उपाय है?



 १. आखिर पलायन क्यों ? :


 आज की स्थिति को मद्यनजर रखते हुए अगर पहाड़ों (उत्तराखण्ड)  के गॉंवों की बात करे तो कई  गाँवों मे सुनसान की स्थिति पैदा हो गयी है,  गाँव में सिर्फ बुजुर्ग एवं बच्चें ही नजर आते हैं | कही कहीं तो बंजर घरों की दुर्दशा  देखने को मिलता है, दूर दरस्त के गाँवो से लेकर शहरी क्षेत्रो के गाँवों तक सब सुन सान पडे़ हुए है ।
 दोस्तों की संगत या कुछ अलग करने की चाह  पलायन का एक कारण हो सकता है, परन्तु मुख्य कारण जो समझ में आता है वो है उचित जीवन दिशा का न हो के साथ  अनुकूल समय का अभाव एवं नौकरी पेशे की कमी !  
गाँव का युवा वर्ग अच्छा जीवन यापन हेतु शहर की ओर रुख करता है |  साधारणतया अक्सर देखने को मिलता है, अगर किसी का दोस्त या सगे संबन्धी शहरी क्षेत्रों में रहते है, उनकी बडीं बडीं बातों में आकर , कई लोग शहरों की ओर चल देते है, और दूसरा महत्वपूर्ण कारण है अनुकूल  नौकरी एवं अनुकूल संसाधनों का अभाव ! उत्तराखण्ड मे कई गाँव एसे हैं जहाँ अभी तक सड़क, बिजली, अस्पताल, स्कूल अदि नहीं हैं, कई गाँवो में लोग कई किलोमीटर पैदल चल कर जाते है, बिजली, स्वस्थ्य केन्द्र, स्कूल न होने के कारण शिक्षा का अभाव एवं अन्य कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।  कहीं स्कूल हैं भी तो अध्यापक नहीं होते ! जिस कारण बच्चे बढ़ नहीं पाते, और जहाँ अध्यापक हों भी तो वे बच्चों से अपने व्यक्तिगत कार्य करवाते है, उचित नौकरी न मिलने के कारण नौकरी की तलाश में लोग शहरों की और चल पड़ते,  मन में उत्साह कई सपने संजोये जब वह शहर की चकाचौध की दुनियाँ में पहुँचता है, तो उसके सपनो की तस्वीर ही बदल जाती है,!  इस चकाचौंध मे कहीं खो जाते है  संजोने के लिए सिर्फ सपने ही रह जाते है ! समय बीत जाने के बाद खुद तो तलाशने मे लग जाते है ! 



२. इसका कारण  क्या ? :-


इसके दो पहलू देखने को मिलता है, पहला पहलू यह है:-  

 जिस प्रकार से लोगो की सोच आधुनिकता के साथ बदलती जा रही है, यह सोच भी एक मुख्य कारण है,  झूठा दिखावा !!!  इस दिखावे के लिए आज कल लोग क्या क्या न करने लगे हैं, जो लोग शहर में रहते हैं,  चाहे वो शहर में कैसी भी जिन्दगी जी रहे हो, परन्तु घर लौटते वक्त नए कपड़े पहन कर टिप-टॉप बन जाते है, और झूठी सान के कए कई प्रकार के झूठ बोलने लगते है ।  साथ ही लोग आधुनिक एवं भौतिक सुख-सुविधाओं के अधीन हो चुके हैं, आरामदायक जीवन जीने की आदत पड़ गयी है, आदत खराब हो गयी है, महनत करने से कतरातने लगे है,  जिस कारणवश शहर की ओर रुख करने लगते है, उनको लगता है शहर में आराम की जिन्दगी जीने को मिलेगा,  परन्तु लोग सच्चाई से कोशों दूर होते है !

दूसरा पहलू : मूल स्थिति के अनुसार आर्थिक तौर पर तंगी, रोजगार एवं उच्च शिक्षा का अभाव, जिस कराण पलायन करना मजबूरी बन जाती है, बेरोजगारी एक अभिशाप बन कर खडीं हुई है,  अगर इस दौर की बात करें तो हर व्यक्ति चाहता है कि वो शिक्षित हो, उसके पास अच्छी नौकरी हो, वह उत्तम जीवन जी सके, और वो उत्तम जीवन यापन करते है !
आज कल हम अपनी सांस्कृतिक विरासतों, हमारी रीति-रिवाज, हमारी सभ्यता, गीत संगीत से भी दूर होते जा रहे है, आधुनिकता के कारण अपनी संस्कृति में रूचि का अभाव एवं  दूसरों की संस्कृति को अपनाने लागे है,  इस दौर मे लोगों पर फैशन का एसा भूत सवार है, कि सब कुछ भूलने लगे है, यह बहुत दुःख की बात है कि हमारी संस्कृति लुप्त के कगार पर खड़ी है ! 


   

जिम्मेदार कौन ? : 


जिस तरह से  पलायन हो रहा है, इसके लिए हमारी सामाजिक, राजनैतिक, एवं आर्थिक कमजोर नीति के साथ-साथ काफी हद तक हम खुद भी इसके जिम्मेदार है , जिम्मेदार होने के साथ साथ दोषी भी हैं ! 



पलायन रोकने के उपाय : 

इसके लिए हमें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को समझना और अपनी जिम्मेदारी को निभाना जरूरी है | सबसे पहले अपनी सोच मे बदलाव लाने की आवश्यकता है, फिर अपने समाज की सोच में, कहते है न "हम बदलेंगे तभी समाज बदलेगा" !!  सुरुआत अपने आप से करनी होगी, सबसे पहले हमें अपने घर मे रहना सीखना होगा,   एक नयी सोच के साथ बदलाव बहुत जरूरी है पहले के मुकाबले, अब  हर क्षेत्र में हम प्रगतिशील है,   हमको चाहिए की हम सुचारु रूप से इस तंत्र के सभी पहलुओ को और भी मजबूत बना सकें, चाहे वो कोई भी क्षेत्र हो, हमारी कोशिस रहे शिक्षा, सामासिक असमानताएं , राजनैतिक, आध्यात्मिक एवं आर्थिक तौर पर सक्षम हो पाएं, जिससे उचित शिक्षा एवं  रोजगार मिल सके,  मन में भटकाव की स्थिति हो !  अपनी संस्कृति-सभ्यता, रीति-रिवाज,  गीत-संगीत,  के प्रति रूची एवं लगाव!  अपनी संस्कृति को सर्वव्यापी बनाने के लिए कोशिश करने की आवश्यकता है !  


धन्यवाद..!



© देव नेगी.


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सोमवार, 8 अप्रैल 2013

श्री गंगोत्री धाम !! द्वितीय भाग :


 पिछला शेष भाग :-


हर्षिल:


भटवारी से 43 किलोमीटर तथा गंगोत्री से 20 किलोमीटर दूर स्थितहर्षिल का वर्णन सिर्फ एक वाक्य में हो सकता हैः आर्श्ययजनक। यह हिमाचल प्रदेश के बस्पा घाटी के ऊपर स्थित एक बड़े पर्वत की छाया में, भागीरथी नदी के किनारे, जलनधारी गढ़ के संगम पर एक घाटी में अवस्थित है। बस्पा घाटी से हर्षिल लमखागा दर्रे जैसे कई रास्तों से जुड़ा है। मातृ एवं कैलाश पर्वत के अलावा उसकी दाहिनी तरफ श्रीकंठ चोटी है, जिसके पीछे केदारनाथ तथा सबसे पीछे बदंरपूंछ आता है। यह वन्य बस्ती अपने प्राकृतिक सौंदर्य एवं मीठे सेब के लिये मशहूर है। हर्षिल के आकर्षण में हवादार एवं छाया युक्त सड़क, लंबे कगार, ऊंचे पर्वत, कोलाहली भागीरथी, सेबों के बागान, झरनें, सुनहले तथा हरे चारागाह आदि शामिल हैं।





नंदनवन तपोवन :

गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर एक कठिन ट्रेक में नंदनवन ले जाती है जो भागीरथी चोटी के आधार (बस) शिविर गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर है। यहां से शिवलिंग चोटी का मनोरम दृश्य दिखता है। गंगोत्री नदी के मुहाने के पार तपोवन है जो अपने सुंदर यहां चारगाह के लिये मशहूर है तथा शिवलिंग चोटी के आधार के चारों तरफ फैली है।







गंगोत्री चिरबासा :

(दूरीः 9 किलोमीटर, समयः 3-4 घंटे) गौमुख के रास्ते पर 3,600 फीट ऊंचे स्थान पर स्थित चिरबासा एक अत्युत्तम शिविर स्थल (केम्प स्पॉट) है जो विशाल गौमुख ग्लेशियर का आश्चर्यजनक दर्शन कराता है। चिरबासा का अर्थ है चिर का पेड़। यहां से आप 6,511 मीटर ऊंचा मांडा चोटी, 5,366 मीटर पर हनुमान तिब्बा, 6,000 मीटर ऊंचा भृगु पर्वत तथा भागीरथी  देख सकते हैं। चिरबासा की पहाड़ियों के ऊपर घूमते भेड़ों को देखा जा सकता है।




गंगोत्री-भोजबासा :

(दूरीः 14 किलोमीटर, समयः6-7 घंटे) भोजपत्र पेड़ों की अधिकता के कारण भोजबासा गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर है। यह जाट गंगा तथा भागीरथी नदी के संगम पर है। गौमुख जाते हुए इसका उपयोग पड़ाव की तरह होता है। मूल रूप से लाल बाबा द्वारा निर्मित एक आश्रम में मुफ्त भोजन का लंगर चलाता है तथा गढ़वाल मंडल विकास निगम का विश्राम गृह, आवास प्रदान करता है। रास्ते में आप किंवदन्त धार्मिक फूल ब्रह्मकमल देख सकते है जो ब्रह्मा का आसन है।









केदारताल :

गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर इस मनोरम झील तक की चढ़ाई में अनुभवी आरोहियों (ट्रेकर्स) की भी परीक्षा होती है। बहुत ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों पर चढ़ने के लिये एक मार्गदर्शक की नितांत आवश्यकता होती है। रास्ते में किसी प्रकार की सुविधा नहीं है इसलिये सब कुछ पहले प्रबन्ध करना होता है। झील पूर्ण साफ है, जहां विशाल थलयसागर चोटी है। यह स्थान समुद्र तल से 15,000 फीट ऊंचा है तथा थलयसागर जोगिन, भृगुपंथ तथा अन्य चोटियों पर चढ़ने के लिये यह आधार शिविर है। जून-अक्टुबर के बीच आना सर्वोत्तम समय है। केदार ग्लेशियर के पिघलते बर्फ से बनी यह झील भागीरथी की सहायक केदार गंगा का उद्गम स्थल है, जिसे भगवान शिव द्वारा भागीदारी को दान मानते हैं। चढ़ाई थोड़ी कठिन जरूर है पर इस स्थान का सौदर्य आपकी थकावट दूर करने के लिये काफी है।








उत्सव:

जब सर्दी प्रारंभ होती है, देवी गंगा अपने निवास स्थान मुखबा गांव चली जाती है। वह अक्षय द्वितीया के दिन वापस आती है। उसके दूसरे दिन अक्षय तृतीया, जो प्रायः अप्रैल महीने के दूसरे पखवाड़े में पड़ता है, हिन्दु कैलेण्डर का अति पवित्र दिन होता है। इस समय बर्फ एवं ग्लेशियर का पिघलना शुरू हो जाता है तथा गंगोत्री मंदिर पूजा के लिए खुल जाते हैं। देवी गंगा के गंगोत्री वापस लौटने की यात्रा को पारम्परिक रीति-रिवाजों, संगीत, नृत्य, जुलुस तथा पूजा-पाठ के उत्सव के साथ मनाया जाता है।
इस यात्रा का रिकार्ड इतिहास कम से कम 700 वर्ष पुराना है और इस बात की कोई जानकारी नहीं कि इससे पहले कितनी सदियों से यह यात्रा मनायी जाती है। मुखबा, मतंग ऋषि के तपस्या स्थान के रूप में जाना जाता है। इस यात्रा के तीन या चार दिनों पहले मुखबा गांव के लोग तैयारियां शुरू कर देते हैं। गंगा की मूर्त्ति को ले जाने वाली पालकी को हरे और लाल रंग के रंगीन कपड़ो से सजाया जाता है। जेवरातों से सुसज्जित कर गंगा की मूर्त्ति को पालकी के सिंहासन पर विराजमान करते हैं। पूरा गांव गंगात्री तक की 25 किलोमीटर की यात्रा में शामिल होते हैं। भक्तगण गंगा से अगले वर्ष पुनः वापस आने की प्रार्थना कर ही जुलुस से विदा लेते हैं। जुलुस के शुरू होने से पहले बर्षा होना  जो प्रायः होती है – मंगलकारी होने का शुभ संकेत हैं।

जुलुस में पास के गांव से भी देवी गंगा के साथ अन्य देवी – देवताओं की डोली शामिल होती हैं। उनमें से कुछ अपने क्षेत्र की सीमा तक साथ रहते हैं। सोमेश्वर देवता भी पालकी में सुसज्जित होकर शामिल होते हैं। गंगा औऱ सोमेश्वर देवता का मिलन अधिकाधिक उत्सव का संकेत हैं। लोग दोने देवताओं की प्रतिमा को साथ में लेकर स्थानीय संगीत के धुन में नाचते एवं थिरकते चलते हैं।
जब दोनों पालकी की यात्रा शुरू होती है तो इस जुलुस में सोमेश्वर देवता की अगुआनी। नेतृत्व में गढ़वाल स्काउट (आर्मी बेण्ड) पारम्परिक रीति-रिवाजों में भाग लेते हैं तथा पारम्परिक संगीत बजाते हैं।रास्ते में लोग देवी-देवताओ की पूजा करते हैं तथा भक्तगणों को जलपान मुहैया कर उन्हें मदद करते हैं। धराली गांव की सीमा पर, सोमेश्वर देवता की यात्रा समाप्त होती है तथा गंगा अपनी यात्रा जारी रखती हैं। यात्रा के दूसरे दिन यह जुलुस गंगात्री पहुंचता हैं तथा भक्तगण देवी गंगा के आगमन एवं स्वागत की प्रतिक्षा कर रहे होता हैं।
विस्तृत रीति-रिवाजों तथा पूजा-पाठ के बाद मंदिर के दरबाजे खोले जाते हैं और गंगा की प्रतिमा को मंदिर में स्थापित किया जाता हैं। इसके साथ ही गंगात्री मंदिर के दरबाजे पुनः लोगों के पूजा-पाठ के लिए खोल दिये जाते हैं।इसी प्रकार जब बर्फ जमना शुरू होने और यात्रा सीजन समाप्त होने पर पारम्परिक रीति-रिवाजों तथा उत्सव के साथ देवी गंगा वापस मुखबा गांव वापस चली जाती हैं।








 पहुंचने का मार्ग :


वायुमार्ग- देहरादून स्थित जौलीग्रांट निकटतम हवाई अड्डा है। दूरी 226 किमी है।
सड़क मार्ग- गंगोत्री ऋषिकेश से बस, कार अथवा टैक्सी द्वारा पहुंचा जा सकता है। यह मार्ग 259 किमी है। गंगोत्री से यमुनोत्री में फूलचट्टी तक की दूरी 8 किमी है तथा बस, कार अथवा टैक्सी द्वारा गंगोत्री तक की दूरी 229 किमी है।








दूरियाँ: 


बुलेट मार्ग संख्या 1 बी- यमुनोत्री से गंगोत्री (237 किमी) यमुनोत्री (5 किमी पैदल), जानकीचट्टी (3 किमी पैदल), फूलचट्टी (2 किमी पैदल) बनास (3 किमी) हनुमानचट्टी (3 किमी), राणाचट्टी (5 किमी), सयानाचट्टी (12 किमी) कुथनूर (15 किमी), गंगनाणी (9 किमी), बडकोट (58 किमी), धरासू, 3(16 किमी), नकुरी(12 किमी), उत्तरकाशी (5 किमी), गंगोरी (3 किमी), नेताला (6 किमी), मनेरी (14 किमी), भटवाडी (13 किमी), गंगनाणी (19 किमी) सूखी धार (12 किमी), हरसिल (11 किमी), लंका (2 किमी), भैरोघाटी (9 किमी), गंगोत्री। bullet मार्ग संख्या 2 बी- हरिद्वार/ऋषिकेश से गंगोत्री (283 किमी)/ऋषिकेश से गंगोत्री (259 किमी) हरिद्वार (24 किमी), ऋषिकेश (16 किमी), नरेंद्रनगर (45 किमी), चंबा (टिहैंरी गढवाल) (31 किमी), दोबाटा (नई टिहैंरी होकर) (40 किमी), धरासू (19 किमी), नकुरी (12 किमी), उत्तरकाशी, उत्तरकाशी से गंगोत्री (96 किमी), मार्ग.




धन्यवाद..!!



स्रोत : विकिपीडिया.

छाया चित्र :  भिन्न -भिन्न जगहों से संग्रहित !


संयोजन : देव नेगी.


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गुरुवार, 21 मार्च 2013

गंगोत्री धाम !! प्रथम भाग :


हिन्दू धर्म में पवित्र माने जाने वाली एवं जीवन दायनी माँ गंगा का उद्गम  पवित्र स्थल :

 


भाग -1.


स्वागत द्वार 
 गंगोत्री पवित्र गंगा नदी का उद्गम स्थान है। गंगाजी का मंदिर, समुद्र तल से लगभग 3042 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। भागीरथी के दाहिने ओर का परिवेश अत्यंत आकर्षक एवं मनोहारी है। यह स्थान उत्तरकाशी से 100 किमी की दूरी पर स्थित है। गंगा मैंया के मंदिर का निर्माण गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा 18 वी शताब्दी के शुरूआत में किया गया था वर्तमान मंदिर का पुननिर्माण जयपुर के राजघराने द्वारा किया गया था। प्रत्येक वर्ष मई से अक्टूबर के महीनो के बीच पतित पावनी गंगा मैंया के दर्शन करने के लिए लाखो श्रद्धालु तीर्थयात्री यहां आते है। यमुनोत्री की ही तरह गंगोत्री का पतित पावन मंदिर भी अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर खुलता है और दीपावली के दिन मंदिर के कपाट बंद होते है।








 गंगोत्री का पौराणीक सन्दर्भ:


पौराणिक कथाओ के अनुसार भगवान श्री रामचंद्र के पूर्वज रघुकुल के चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहां एक पवित्र शिलाखंड पर बैठकर भगवान शंकर की प्रचंड तपस्या की थी। इस पवित्र शिलाखंड के निकट ही 18 वी शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण किया गया। ऐसी मान्यता है कि देवी भागीरथी ने इसी स्थान पर धरती का स्पर्श किया। ऐसी भी मान्यता है कि पांडवो ने भी महाभारत के युद्ध में मारे गये अपने परिजनो की आत्मिक शांति के निमित इसी स्थान पर आकर एक महान देव यज्ञ का अनुष्ठान किया था। यह पवित्र एवं उत्कृष्ठ मंदिर सफेद ग्रेनाइट के चमकदार 20 फीट ऊंचे पत्थरों से निर्मित है। दर्शक मंदिर की भव्यता एवं शुचिता देखकर सम्मोहित हुए बिना नही रहते।
शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है। यह दृश्य अत्यधिक मनोहार एवं आकर्षक है। इसके देखने से दैवी शक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। पौराणिक आख्यानो के अनुसार, भगवान शिव इस स्थान पर अपनी जटाओ को फैला कर बैठ गए और उन्होने गंगा माता को अपनी घुंघराली जटाओ में लपेट दिया। शीतकाल के आरंभ में जब गंगा का स्तर काफी अधिक नीचे चला जाता है तब उस अवसर पर ही उक्त पवित्र शिवलिंग के दर्शन होते है।





गंगोत्री मन्दिर:

गंगोत्री मंदिर्

इतिहास:-

गंगोत्री शहर धीरे-धीरे उस मंदिर के इर्द-गिर्द विकसित हुआ जिसका इतिहास  कई वर्ष पुराना हैं, इसके पहले भी अनजाने कई सदियों से यह मंदिर हिदुओं के लिये आध्यात्मिक प्रेरणा का श्रोत रहा है। चूंकि पुराने काल में चारधामों की तीर्थयात्रा पैदल हुआ करती थी तथा उन दिनों इसकी चढ़ाई दुर्गम थी इसलिये वर्ष 1980 के दशक में गंगोत्री की सड़क बनी और तब से इस शहर का विकास द्रुत गति से हुआ।
गंगोत्री शहर तथा मंदिर का इतिहास अभिन्न रूप से जुड़ा है। प्राचीन काल में यहां मंदिर नहीं था। भागीरथी शिला के निकट एक मंच था जहां यात्रा मौसम के तीन-चार महीनों के लिये देवी-देताओं की मूर्तियां रखी जाती थी इन मूर्तियों को गांवों के विभिन्न मंदिरों जैसे श्याम प्रयाग, गंगा प्रयाग, धराली तथा मुखबा आदि गावों से लाया जाता था जिन्हें यात्रा मौसम के बाद फिर उन्हीं गांवों में लौटा दिया जाता था।
गढ़वाल के गुरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने 18वीं सदी में गंगोत्री मंदिर का निर्माण इसी जगह किया जहां राजा भागीरथ ने तप किया था। मंदिर में प्रबंध के लिये सेनापति थापा ने मुखबा गंगोत्री गांवों से पंडों को भी नियुक्त किया। इसके पहले टकनौर के राजपूत ही गंगोत्री के पुजारी थे। माना जाता है कि जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय ने 20वीं सदी में मंदिर की मरम्मत करवायी।
ई.टी. एटकिंस ने दी हिमालयन गजेटियर (वोल्युम III भाग I, वर्ष 1882) में लिखा है कि अंग्रेजों के टकनौर शासनकाल में गंगोत्री प्रशासनिक इकाई पट्टी तथा परगने का एक भाग था। वह उसी मंदिर के ढांचे का वर्णन करता है जो आज है। एटकिंस आगे बताते हैं कि मंदिर परिवेश के अंदर कार्यकारी ब्राह्मण (पुजारी) के लिये एक छोटा घर था तथा बाहर तीर्थयात्रियों के लिये लकड़ी का छायादार ढांचा था।






मौसम:


ग्रीष्म- दिन के समय सुहावना तथा रात में समय सर्द। न्यूनतम तापमान 6 सें. तथा अधिकतम 20 सें शीतकाल- सितंबर से नवंबर तक दिन के समय सुहावना, रात के समय अधिक ठंडा। दिसंबर से मार्च तक हिमाच्छादित। तापमान शून्य से कम
गंगोत्री अवस्था को एक नाम दिया जा सकता है- प्रेरणात्मक। नाटकीय परिदृश्यों में शामिल हैं ऊंचे बर्फीले शिखर जिसकी पृष्ठभूमि में हैं गहरी गढ़ी घाटियां जहां सिरों एवं देवदार के पेड़ों के बीच झिलमिलाती नदियों का आगमन होता है। यह भौतिक दृश्य एक जादू बिखेरता है। सदियों से यह लाखों तीर्थयात्रियों को आध्यात्मिक उत्साह तथा हजारों साहसिकों को एक चिरन्तर चुनौती देता रहा है।









स्थान:

समुद्र तल से 3,140 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री मंदिर भोज वृक्षों से घिरा तथा किनारे पर खड़े पर्वत की शिवलिंग, सतोपंथ जैसी चोटियों के साथ देवदार जंगल के बीच एक सुंदर घाटी है। भागीरथी घाटी के बाहर निकलकर केदारगंगा तथा भागीरथी के कोलाहल को छोड़कर जल गंगा से मिल जाती है, इस सुंदर घाटी के अंत में मंदिर है।












वनस्पतियां:

इस क्षेत्र में वनस्पतियों की विशाल प्रजातियां है। हिमालय का बलूत सर्वाधिक प्रमुख है। अन्य में शामिल हैं बुरांस, सफेद सरो (एवीज पींड्रो), स्वच्छ पेड़ (पाईसिया स्मिल बियाना), सदाबहार पेड़ (साईप्रेसस तरूलोस) तथा नीले देवदार आदि हैं। जब बलूत के पेड़ विलीन हो रहे होते है तो पैंगर (एसक्युलस ईडिका), कबासी (कोरिलस जैकुमोंटी), कंजुला (एसर कैसियम) तथा रींगाल (जानसेरेसिंस) इसकी जगह आ जाते हैं। परर्णांग, विसर्पी पौधे तथा शैवाक की यहां बहुतायत है।








जीवजन्तु:


इस क्षेत्र में पाये जाने वाले सामान्य जीव-जंतुओं में हैं लंगूर, लाल बंदर, भूरे भालू, सामान्य लोमड़ी, चीते, बर्फीले चीते, भोंकते हिरण सांभर, कस्तूरी मृग, सेरो, बरड़ मृग, साही, तहर आदि। विभिन्न रंगों की तितलियां तथा कीटें भी यहां पायी जाती हैं। गढ़वाल क्षेत्र रंगीन एवं संगीतमय जीव-जंतुओं से भरा पड़ा हैं। हिमालयी सीटी बजाती सारिकाएं, स्वणिर्म किरीटधारी, पाश्चात्य रंग-विरंगे हैसोड़, साखिएं मोनाल एवं कोकल तीतर, चक. ! 








स्थानीय लोग :

वेश-भूषा- अप्रैल से जुलाई तक हल्के ऊनी वस्त्र तथा सितंबर से नवंबर तक भारी ऊनी वस्त्र
तीर्थ-यात्रा का समय- अप्रैल से नवंबर तक.

भाषा- हिन्दी, अंग्रेजी तथा गढवाली।

आवास- गंगोत्री तथा यात्रा मार्ग में समस्त प्रमुख स्थानो पर जीएमवीएन यात्री विश्राम गृह, निजी विश्राम गृह तथा धर्मशालाए इत्यादि.!
  






निकटवर्ती आकर्षण:


गौमुख:

गंगोत्री से 19 किलोमीटर दूर3,892 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गौमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है। कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। गंगोत्री से यहां तक की दूरी पैदल या फिर ट्ट्टुओं पर सवार होकर पूरी की जाती है। चढ़ाई उतनी कठिन नहीं है तथा कई लोग उसी दिन वापस भी आ जाते है। गंगोत्री में कुली एवं ट्ट्टु उपलब्ध होते हैं।
25 किलोमीटर लंबा, 4 किलोमीटर चौड़ा तथा लगभग 40 मीटर ऊंचा गौमुख अपने आप में एक परिपूर्ण माप है। इस गौमुख ग्लेशियर में भगीरथी एक छोटी गुफानुमा ढांचे से आती है। इस बड़ी वर्फानी नदी में पानी 5,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक बेसिन में आता है जिसका मूल पश्चिमी ढलान पर से संतोपंथ समूह की चोटियों से है।







मुखबा गाँव :



भागीरथी के अलावा इस गांव के निवासी ही गंगोत्री मंदिर के पुजारी हैं जहां मुखीमठ मंदिर भी है। प्रत्येक वर्ष दीवाली में जब गंगोत्री मंदिर बंद होने पर जाड़ों में देवी गंगा को एक बाजे एवं जुलुस के साथ इस गांव में लाया जाता है। इसी जगह जाड़ों के 6 महीनों, बसंत आने तक गंगा की पूजा होती है जब प्रतिमा को गंगोत्री वापस लाया जाता है।
केदार खंड में मुख्यमठ की तीर्थयात्रा को महत्वपूर्ण माना गया है। इससे सटा है मार्कण्डेयपुरी जहां मार्कण्डेय मुनि के तप किया तथा उन्हें भगवान विष्णु द्वारा सृष्टि के विनाश का दर्शन कराया गया। किंबदन्ती अनुसार इसी प्रकार से मातंग ऋषि ने वर्षों तक बिना कुछ खाये-पीये यहां तप किया।







भैरों घाटी:



धाराली से 16 किलोमीटर तथा गंगोत्री से 9 किलोमीटर भैरों घाटी , जध जाह्नवी गंगा तथा भागीरथी के संगम पर स्थित है। यहां तेज बहाव से भागीरथी गहरी घाटियों में बहती है, जिसकी आवाज कानों में गर्जती है। वर्ष 1985 से पहले जब संसार के सर्वोच्च जाधगंगा पर झूला पुल सहित गंगोत्री तक मोटर गाड़ियों के लिये सड़क का निर्माण नहीं हुआ था, तीर्थयात्री लंका से भैरों घाटी तक घने देवदारों के बीच पैदल आते थे और फिर गंगोत्री जाते थे। भैरों घाटी हिमालय का एक मनोरम दर्शन कराता है, जहां से आप भृगु पर्वत श्रृंखला, सुदर्शन, मातृ तथा चीड़वासा चोटियों के दर्शन कर सकते हैं।





 शेष जानकारी अगले  भाग  में जारी......

स्रोत : विकिपीडिया.

छाया चित्र :  भिन्न -भिन्न जगहों से संग्रहित !


संयोजन : देव नेगी.


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गुरुवार, 7 मार्च 2013

आधुनिकता की दौर में लुप्त होते उत्तराखण्ड के लोक वाद्ययन्त्र :



हमारा उत्तराखण्ड लोक सांस्कृ्तिक एवं परम्पराओं क गढ़ है। यहाँ भिन्न भिन्न प्रकार की लोक कलाओं पर आधारित सांस्कृ्तिक एवं आध्यात्मिक  विरासत की झलक मिलती है,  यहाँ समस्त देवी देवता वास  हैं इसी लिए  उत्तराखंण्ड को देव भूमि कहलाता है , यानि कि उत्तराखण्ड देवों का गढ़ भी है कई पवित्र स्थल,  धाम इत्यादि यहीं स्थित है, जिनके दर्शन हेतु हर वर्ष देश विदेश से लाखों श्रधालु यात्री यहाँ आते है। जिससे हमारी गौरवता का अंदाजा लगाया जा सकता है, परन्तु वर्तमान समय मे स्थिति कुछ दयनीय हो गयी है, समय के साथ साथ सब कुछ बदलने लग गया है, और साथ मे हम खुद बदलने लग गये है जिससे हमारी परम्परा हमारी संस्कृ्ति कहीं न कहीं पीछे छूटती जा रही है, और यह इस बात का संकेत देता है कि हमारा आने वाला समय कैसा होगा। हम समय के साथ साथ सब कुछ धीरे धीरे भूलते जा रहे है,  इसका सबसे मुख्य कारण है पलायन.! पलायन के साथ साथ हम अपनी लोकसंस्कृ्ति को भी पीछे छोड़ते जा रहे हैं, और धीरे धीरे हमारी संस्कृ्ति की धरातल की मूल जडों को उखाड़ते जा रहे हैं..! उनमे से कुछ चीजे हैं जिनका अस्तित्व अब समाप्ति की और बढ रहा है, मुख्य रूप से हमारे लोक संस्कृ्ति की शान हमारे लोकवाद्य यन्त्र, जिनके बिना सब कुछ अधूरा प्रतीत होता है और यह सच भी है, उत्तराखंण्ड के लोक संगीत का इतिहास बहुत समृ्द्ध रहा हैं, पर्वतीय लोक संगीत हमारी लोकसंस्कृ्ति विरासत का आईना है, उत्तराखण्ड मे अनेक प्रकार से गायन एवं वादन किया जाता है, जो दो क्षेत्रों में बंटा हुआ है, उसमे से एक है क्षेत्र गढ़वाल एवं दूसरा क्षेत्र  कुमाऊं,  जो मिलकर गढ़वालीकुमाउंनी संस्कृ्ति संयोजन बनता है! और इस संयोजन मे मुख्य भूमिका निभाते है हमारे लोकवाद्य यन्त्र,  परन्तु दु:ख इस बात का है कि धीरे धीरे ये वाद्य यन्त्र लुप्त होते जा रहे है, जिन से हमारे संस्कृ्त, सभ्यता एवं परम्परा की पहिचान है अगर वही लुप्त हो जायेंगे तो हमारे संस्कृ्ति कैसे बचेगी..? आज कल के इस चकाचौदं एवं दिखावे की नकली रोशनी मे कहीं न कही हम अपनी परम्परा एवं पारम्परिक रीती रिवाजों को पीछे छोडते जा रहे हैं,  कई पीडि़यों से चली आ रही परम्परा अब अपने अन्तिम चरण मे है, और इन परम्पराओं जिंदा रखने वाले लोकवादक औजी, दास, धौंसिया (हुड़किया), घटल्या, डौरिया, बादी आदि लोग भी प्रोत्साहन की कमी  के कारण धीरे धीरे लुप्त की कगार पर है !

एक नजर उत्तराखण्डी वाद्ययंत्र एव उनके उपयोगो पर :

उत्तराखण्ड मे मुख्य वाद्ययंत्र जो हमारी संस्कृति का आधार है वो इस प्रकार हैं:-  ढोल, दमौ (दमाऊ) , भौंकर, हुणका (हुड़का), डौंर-थाली, मुरुली, मशकबीन, (बीनबाजा),  जौंल्या मुरुली एवं रणसिंगा आदि !

उत्तराखण्ड के मुख्य लोक वाद्ययन्त्र :



1-  ढोल : - 


ढोल उत्तराखण्ड के वाद्य यंत्रों मे एक प्रमुख वाद्य यंत्र है, यह ताँबे या पीतल के धातु से बना हुआ एक गोल बक्से के आकार का होता है, जिसके दोनों और जानवरो की खाल से बने पर्दे (पूणे) लगाये जाते है, फिर उन दोनों को डोरी के माध्यम से कसा (बाँधा) जाता है..! ढोल को एक से तरफ लकडी़ की बनी छणी से और एक तरफ हाथ से बजाया जाता है.! ढोल हर शुभ एवं मंगल कार्यों में प्रयोग किया जाता है, बिना ढोल के कोई भी मंगल कार्य शुभ एवं सम्पूर्ण नहीं माना जाता है। शादियों एवं विशेष धार्मिक कार्यक्रमो में मुख्य रूप से बजाया जाता है,  इसको वाद्यित करने वालों को दास या औजी कहा जाता है..!






2. दमौ (दमऊ) :- 

दमौ ढोल के साथ बजाया जाता है,  ढोल एवं दमौ दोनो अलग अलग नहीं बजाये जाते है, क्योंकि इन दोनो के मिश्रण से ही धुन एवं ताल बनता है, इन दोनों के संयोग से 52 तलों का निर्माण किया जाता है,! दमौ भी ढोल की तरह धातु से निर्मित होता है, परन्तु इसका आकार अलग होता है, यह तसैले (कटोरे) के आकर का होता है , इसके उपर भी  जानवरों की खाल का पर्दा लगाया जाता है, जो चमडी़ के द्वारा कसा जाता है.!  यह वाद्यक दासों द्वारा बजाया जाता है..।



3.भौंकर :-  

भौंकर ताँबे धातु से बना एक वाद्य यंत्र है, यह लगभग 3-4 मीटर लम्बे आकृति का होता है,  पीछे से संकरा और आगे से चौडे़ आकृति के इस यंत्र को विशेष महोत्सवों पर बजाया जाता है, यह ढोल एवं दमौ के साथ में बजाया जाता है, यह कोई भी बजा सकता है।








4. हुणका (हुडका) :-


हुणका (हुडका) एक विशेष प्रकार का वाद्य यंत्र है, यह काठ (लकडी़) से बना विशेषाकृति का होता है,  इसके दोनो ओर चमडे़ से बने गोल झिल्ली (पर्दे) लगाये जाते है,  इसका उपयोग भिन्न-भिन्न उत्सवों 
मे किया जात है,  मूल रूप से देवी देवताओं के जागर एमं पौराणिक देवताओं की गाथओं में इसका उपयोग किया जाता है !  इसके साथ ताल मिलाने के लिए विशेष प्रकार की थाली का प्रयोग किया जाता है, हुडके की धुन बहुत ही मन मोहक होती है । इसके वाद्यक को धौसिया या हुड़किया कहते है..!


5. डौ़र - थाली :-

डौर और थाली उत्तराखण्ड के प्रमुख वद्य यंत्रों मे से प्रमुख यंत्र हैं,  डौर लकडी़ का बना एक गोलाकार का बक्सा होता है जिसे दोनों तरफ से बजाया जाता है एक तरफ लकडी के बने विशेष प्रकार की छ्डी़ से और दूसरी तरफ हाथ से, डौंर के चारों तरफ बडे आकार के विशेष प्रकार के पीतल के गुंगरू लगाये जाते है जो धुन को और भी मनोनित करते है,  डौर- थाली का जागरों मांगलिक कार्यो एवं लोक पौराणिक देवताओं की गाथाओं मे प्रयोग किया जाता है, डौर के साथ थाली का तालमेल जरूरी होता है डौर और थाली दोनो एक साथ बजाये जाते है !  इन वाद्य यंत्रो को  बजाने वालो को हर जगह अलग अलग नाम से पुकारा जाता है, एक  स्थनीय भाषा अनुसार इनको घटल्या नाम से जाना जाता है ।





6. मशकबीन :-

मशकबीन उत्तराखण्डी वाद्य यंत्रो मे से एक प्रमुख वाद्य यंत्र है, यह खास कर शादियों मे शुभ अवसर पर बजाया जाता है,  इसमें एक साथ कई सुरों का समावेश होता है,  यह एक खास तरह का खाली ब्लाडर (थैला) की तरह होता है, इसमे अपने मुंह मे माध्यम से वायु का संचार किया जाता है,  यह वायु संचार जब का पूरा होती ही ब्लाडर फुल हो जाता है और इससे जुडें यंत्रो मे वायु का संचार होने लगता है  और फिर मधुर धुन का आवागमन होता है,




7. जौल्या (जौयां) मुरुली :- 

गढवाल एवं कुमाऊं मे बजाये जाने वाली ज्योलयां मुरुली उत्तराखण्डी वाद्य यंत्रो मे से प्रमुख यंत्र है, गढ़वाल एवं कुमाउं में जौंया का मतलब जुड़वा होता है,  यह दो सामान्य रिंगाल के नलियों को मिलाकर बनाया जाता है फिर इनमें अलग अलग छेद किये जाता है हर एक मे एक बडा़ एवं पाँच छोटे-छोटे छेद किये जाते है।  ऊंचाई क्षेत्रों मे पाये जाने वाले उत्तराखण्डी बाँस "रिंगाल" से निर्मित इस मुरुली को बजाने के लिए एक सामान्य मुरुली के अपेक्षाकृ्त ज्यादा सुर एवं स्वाश की आवश्यक्ता होती है।  इसमें सात सुरों की जगह सिर्फ पाँच धुनो का समावेश होता है, यह आम तौर पर कोई भी बना सकता है परन्तु  हर किसी वाद्यक से बजना मुश्किल होता है,  इसके लिए साँसो का निरन्तर प्रवाह जरूरी होता है, जो कि थोडा सा कठिन होता है,  इस विशेष वाद्य यंत्र को पहाडी़ क्षेत्रों के स्थानीय लोग, ग्वाले जंगलों में गायों के साथ लोक गीतों के तर्ज पर बजाते है जिसकी धुन मन को मुघ्ध कर देने वाली होती है ।



8. रणसिंगा :


रणसिंगा उत्तराखण्ड का एक प्रमुख वाद्य यंत्र है, यह आम तौर पर शुभ कार्यों के आरम्भ में वाद्यित किया जाता है..यह ताँबे के धातु से निर्मित किया जाता है, इसका एक छोर पतला एव दुसरा मोटा होता है..! इसका आकार नीचे से थोडा़ सीधा एवं उपर की ओर से  थोडा घुमावदार होता है ! हमारी विडम्बना देखिए आज के इस आधुनिकता के दौर में हम अपनी परम्परा, संस्कृ्ति-सभ्यता, रीति-रिवाज,   सब कुछ भूलते जा रहे है, यह बहुत दु:ख की बात है,  इस बारे मे गहरे चिन्तन की शक्त आवश्यक्ता है ।




 हमारी विडम्बना देखिए आज के इस आधुनिकता के दौर में हम अपनी परम्परा, संस्कृ्ति-सभ्यता, रीति-रिवाज,   सब कुछ भूलते जा रहे है, यह बहुत दु:ख की बात है,  इस बारे मे गहरे चिन्तन की शक्त आवश्यक्ता है।



धन्यवाद..!!


 छाया चित्र :  भिन्न -भिन्न जगहों से संग्रहित !

© देव नेगी 


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सोमवार, 4 फ़रवरी 2013


श्री केदार नाथ जी:


केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम  और पंच केदार  में से भी एक है। यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्‍य ही दर्शन के लिए खुलता है। पत्‍थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डव वंश के जनमेजय ने कराया था। यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है। आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। 



श्री केदार नाथ जी

महिमा व इतिहास:

केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों का बड़ा ही माहात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनापथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है।
इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसा ये १२-१३वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाय हुआ है जो १०७६-९९ काल के थे।  एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। फिर भी इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल मानते है कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं। १८८२ के इतिहास के अनुसार साफ अग्रभाग के साथ मंदिर एक भव्य भवन था जिसके दोनों ओर पूजन मुद्रा में मूर्तियाँ हैं। “पीछे भूरे पत्थर से निर्मित एक टॉवर है इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। मंदिर के सामने तीर्थयात्रियों के आवास के लिए पण्डों के पक्के मकान है। जबकि पूजारी या पुरोहित भवन के दक्षिणी ओर रहते हैं। श्री ट्रेल के अनुसार वर्तमान ढांचा हाल ही निर्मित है जबकि मूल भवन गिरकर नष्ट हो गये, केदारनाथ मन्दिर रुद्रप्रयाग जिले मे है उत्तरकाशी जिले मे नही



मंदिर वास्तुशिल्प :

यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हाँ ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी।
मन्दिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते हैं।


यह  भगवान केदर नाथ जी की दुर्लभ
फोटो कई साल पुरानी है सच में इस फोटो
के दर्शन होते ही खुद को धन्य महसूस होता है

पौराणिक  कथा :

इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं।
पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतध्र्यान हुए, तो उनके धड से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदारकहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।



स्थिति :

चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मंदाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के पाद में, कत्यूरी शैली द्वारा निर्मित, विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर (३,५६२ मीटर) की ऊँचाई पर अवस्थित है। इसे १००० वर्ष से भी पूर्व का निर्मित माना जाता है। जनश्रुति है कि इसका निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय द्वारा करवाया गया था। साथ ही यह भी प्रचलित है कि मंदिर का जीर्णोद्धार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने करवाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है। राहुल सांकृत्यायन द्वारा इस मंदिर का निर्माणकाल १०वीं व १२वीं शताब्दी के मध्य बताया गया है। यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत व आकर्षक नमूना है। मंदिर के गर्भ गृह में नुकीली चट्टान भगवान शिव के सदाशिव रूप में पूजी जाती है। केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रांति से पंद्रह दिन पूर्व खुलते हैं और अगहन संक्रांति के निकट बलराज की रात्रि चारों पहर की पूजा और भइया दूज के दिन, प्रातः चार बजे, श्री केदार को घृत कमल व वस्त्रादि की समाधि के साथ ही, कपाट बंद हो जाते हैं। केदारनाथ के निकट ही गाँधी सरोवर व वासुकीताल हैं। केदारनाथ पहुँचने के लिए, रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी होकर, २० किमी. आगे गौरीकुंड तक, मोटरमार्ग से और १४ किमी. की यात्रा, मध्यम व तीव्र ढाल से होकर गुज़रनेवाले, पैदल मार्ग द्वारा करनी पड़ती है।
मंदिर मंदाकिनी के घाट पर बना हुआ हैं भीतर घारे अन्धकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं। शिवलिंग स्वयंभू है। सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान को घृत अर्पित कर बाँह भरकर मिलते हैं, मूर्ति चार हाथ लम्बी और डेढ़ हाथ मोटी है। मंदिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। मंदिर के पीछे कई कुण्ड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है।

श्री केदार नाथ  मन्दिर 


दर्शन का समय:

केदारनाथ जी का मन्दिर आम दर्शनार्थियों के लिए प्रात: 7:00 बजे खुलता है।
दोपहर एक से दो बजे तक विशेष पूजा होती है और उसके बाद विश्राम के लिए मन्दिर बन्द कर दिया जाता है।
पुन: शाम 5 बजे जनता के दर्शन हेतु मन्दिर खोला जाता है।
पाँच मुख वाली भगवान शिव की प्रतिमा का विधिवत श्रृंगार करके 7:30 बजे से 8:30 बजे तक नियमित आरती होती है।
रात्रि 8:30 बजे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर बन्द कर दिया जाता है।
शीतकाल में केदारघाटी बर्फ़ से ढँक जाती है। यद्यपि केदारनाथ-मन्दिर के खोलने और बन्द करने का मुहूर्त निकाला जाता है, किन्तु यह सामान्यत: नवम्बर माह की 15 तारीख से पूर्व (वृश्चिक संक्रान्ति से दो दिन पूर्व) बन्द हो जाता है और छ: माह बाद अर्थात वैशाखी (13-14 अप्रैल) के बाद कपाट खुलता है।
ऐसी स्थिति में केदारनाथ की पंचमुखी प्रतिमा को ‘उखीमठ’ में लाया जाता हैं। इसी प्रतिमा की पूजा यहाँ भी रावल जी करते हैं।
केदारनाथ में जनता शुल्क जमा कराकर रसीद प्राप्त करती है और उसके अनुसार ही वह मन्दिर की पूजा-आरती कराती है अथवा भोग-प्रसाद ग्रहण करती है।


पूजा का क्रम:

भगवान की पूजाओं के क्रम में प्रात:कालिक पूजा, महाभिषेक पूजा, अभिषेक, लघु रुद्राभिषेक, षोडशोपचार पूजन, अष्टोपचार पूजन, सम्पूर्ण आरती, पाण्डव पूजा, गणेश पूजा, श्री भैरव पूजा, पार्वती जी की पूजा, शिव सहस्त्रनाम आदि प्रमुख हैं। मन्दिर-समिति द्वारा केदारनाथ मन्दिर में पूजा कराने हेतु जनता से जो दक्षिणा (शुल्क) लिया जाता है, उसमें समिति समय-समय पर परिर्वतन भी करती है।

स्रोत: विकिपीडिया

संयोजन:  देव नेगी



धन्यवाद..!


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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

श्री बद्रीनाथ जी


जय बद्री नाथ जी
बद्रीनाथ मंदिर जिसे बद्रीनारायण मंदिर भी कहते हैं, अलकनंदा नदी के किनारे उत्तराखंड राज्य में स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप बद्रीनाथ को समर्पित है। यह हिन्दुओं के चार धाम में से एक धाम भी है। ऋषिकेष से यह २९४ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है| 
ये पंच-बद्री में से एक बद्री हैं। उत्तराखंड में पंच बद्री, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

1 महत्व
2 कथा
3 पौराणिक मान्यताओं के अनुसार
4 लोक कथा
5 बद्रीनाथ नाम की कथा
6 दर्शनीय स्थल
7 बाहरी कड़ियाँ

1. महत्व :

बदरीनाथ उत्तर दिशा में हिमालय की अधित्यका पर हिन्दुओं का मुख्य यात्राधाम माना जाता है। मन्दिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ है। प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बदरीनाथ का दर्शन एक बार अवश्य ही करे। यहाँ पर शीत के कारण अलकनन्दा में स्नान करना अत्यन्त ही कठिन है। अलकनन्दा के तो दर्शन ही किये जाते हैं। यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। वनतुलसी की माला, चले की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।

छोटे चार धाम:
1. बद्री नाथ 
2. केदार नाथ 
3. गंगोत्री 
4. यमुनोत्री,

2. कथा :

जय बद्री विशाल
बदरीनाथ की मूर्ति शालग्रामशिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। कहा जाता है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुण्ड से निकालकर स्थापित की थी। सिद्ध, ऋषि, मुनि इसके प्रधान अर्चक थे। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तब उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरम्भ की। शंकराचार्य की प्रचारयात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनन्दा में फेंक गए। शंकराचार्य ने अलकनन्दा से पुन: बाहर निकालकर उसकी स्थापना की। तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।
मन्दिर में बदरीनाथ की दाहिनी ओर कुबेर की मूर्ति है। उनके सामने उद्धवजी हैं तथा उत्सवमूर्ति है। उत्सवमूर्ति शीतकाल में बरफ जमने पर जोशीमठ में ले जायी जाती है। उद्धवजी के पास ही चरणपादुका है। बायीं ओर नर-नारायण की मूर्ति है। इनके समीप ही श्रीदेवी और भूदेवी है।

3. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार :

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह 12 धाराओं में बंट गई। इस स्थान पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से विख्यात हुई और यह स्थान बद्रीनाथ, भगवान विष्णु का वास बना। भगवान विष्णु की प्रतिमा वाला वर्तमान मंदिर 3,133 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और माना जाता है कि आदि शंकराचार्य, आठवीं शताब्दी के दार्शनिक संत ने इसका निर्माण कराया था। इसके पश्चिम में 27 किमी की दूरी पर स्थित बद्रीनाथ शिखर कि ऊँचाई 7,138 मीटर है। बद्रीनाथ में एक मंदिर है, जिसमें बद्रीनाथ या विष्णु की वेदी है। यह 2,000 वर्ष से भी अधिक समय से एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान रहा है।


4. लोक कथा:

पौराणिक कथाओं और यहाँ की लोक कथाओं के अनुसार यहाँ नील कंठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतरण किया। ये जगह पहले शिव भूमि (केदार भूमि) के रूप में व्यवस्थित थी। भगवान् विष्णु जी अपने ध्यान योग हेतु स्थान खोज रहे थे और उन्हें अलकनंदा के समीप ये जगह बहुत भायी। उन्होंने चरणपादुका(नील कंठ पर्वत के समीप) बाल रूप में अवतरण किया और ऋषि गंगा और अलकनंदा नदी के संगम के समीप क्रंदन करने लगे। उनका रुदन सुन कर माता पार्वती का ह्रदय द्रवित हो उठा और वो और शिव जी स्वयं उस बालक के समीप उपस्थित हो गए। माता ने पुछा की बालक तुम्हे क्या चहिये? तो बालक ने ध्यान योग करने हेतु वो जगह मांगी। और इस तरह से रूप बदल कर भगवान विष्णु ने शिव-पार्वती से वो जगह अपने ध्यान योग हेतु प्राप्त की। जो जगह आज बद्रीविशाल के नाम से सर्व विदिद है।
श्री बद्री नाथ जी

 5. बद्रीनाथ नाम की कथा:

जब भगवान विष्णु योग ध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत ही ज्यादा हिम पात होने लगा। भगवान विष्णु बर्फ में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का ह्रदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बेर(बद्री) के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगी। भगवान विष्णु को धुप वर्षा और हिम से बचने लगी। कई वर्षों बाद जब भगवान् विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा की माता लक्ष्मी बर्फ से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा की हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा। और क्यूंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बद्रीनाथ पड़ा।
जहाँ भगवान बद्री ने तप किया तह वो ही जगह आज तप्त कुण्ड के नाम से जानि जाती है और उनके तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है।
 

6. दर्शनीय स्थल :


बद्रीनाथ में तथा इसके समीप अन्य दर्शनीय स्थल हैं-

अलकनंदा के तट पर स्थित गर्म कुंड- तप्त कुंड.
धार्मिक अनुष्टानों के लिए इस्तेमाल होने वाला एक समतल चबूतरा- ब्रह्म कपाल.
पौराणिक कथाओं में उल्लिखित सांप(साँपों का जोड़ा).
शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड – शेषनेत्र.
चरणपादुका- जिसके बारे में कहा जाता है कि यह भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं, (यहीं भगवान विष्णु ने बालरूप में अवतरण किया था। )
बद्रीनाथ से नज़र आने वाला बर्फ़ से ढंका ऊँचा शिखर नीलकंठ, जो 'गढ़वाल क्वीन' के नाम से जाना जाता है।
माता मूर्ति मंदिर:- जिन्हें बद्रीनाथ भगवान जी की माता के रूप में पूजा जाता है।
माणा गाँव: इसे भारत का अंतिम गाँव भी कहा जाता है।
वेद व्यास गुफा,गणेश गुफा: यहीं वेदों और उपनिषदों का व्याख्यान और लेखन हुआ था।
भीम पुल: भीम ने सरस्वती नदी को पार करने हेतु एक भरी चट्टान को नदी के ऊपर रखा था जिसे भीम पुल के नाम से जाना जाता है।
तप्त कुंड
वसु धारा: यहाँ अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी। ये जगह माणा से ८ किलोमीटर दूर है। कहते हैं की जिसके ऊपर इसकी बूंदे पड़ जाती हैं उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वो पापी नहीं होता है।
लक्ष्मी वन: ये वन लक्ष्मी माता के वन के नाम से प्रसिद्ध है।
सतोपंथ(स्वर्गारोहिणी): इसी जगह से राजा युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग को प्रस्थान किये थे।
अलकापुरी: अलकनंदा न उद्गम स्थान। इसे धन के देवता कुबेर का भी निवास स्थान माना जाता है।
सरस्वती नदी: पूरे भारत में सिर्फ माणा गाँव में ही ये नदी प्रकट रूप में है।
भगवान विष्णु के तप से उनकी जंघा से एक अप्सरा उत्पन्न हुई जो उर्वशी नाम से विख्यात हुई। बद्रीनाथ कसबे के समीप ही बामणी गाँव में उनका मंदिर है।



नर नारायण पर्वत

7 बाहरी कड़ियाँ :

एक विचित्र सी बात है... जब भी आप बद्रीनाथ जी के दर्शन करें तो उस पर्वत(नारायण पर्वत) की चोटी की और देखेंगे तो पाएंगे की मंदिर के ऊपर पर्वत की चोटी शेषनाग के रूप में व्यवष्ठिथ है। शेष नाग के प्राकर्तिक फन साफ़ साफ़ देखे जा सकते हैं।





स्रोत : विकिपीडिया

धन्यवाद,

संयोजन : देव नेगी.


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शनिवार, 15 दिसंबर 2012

बुराँस :( पहाडों का गुलदस्ता)


बुराँश 
बुराँस उत्तराखण्ड का प्रमुख पुष्प है, यह उत्तराखण्ड के  हिमालयी क्षेत्रों में 2000 से 3500 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है । बुराँस के पेड़ों पर मार्च-अप्रैल माह में लाल रंग के बहुत सुन्दर  फूल खिलते हैं, इनकी सुन्दरता मन मे एक अलौकिक शांति प्रदान करती है, एवं  मन को मोह लेती हैं, बुराँस के पेड़ जमीनी सतह से लगभग 8-15 मीटर तक लम्बे होते है, बुराँस के पेड़ की बनावट कुदरती तौर पर कुछ इस तरह से होती है जैसे मनो कि कोई गुलदस्ता हो,  नीचे से पेड़ संकरा एवं चिकना होता है, और उपर जाते जाते सुन्दर फूलों के साथ फैल जाता है,  इसे पहाडो़ का गुलदस्ता भी कह सकते है।. बुराँस के  पेडों की पत्तियां बनावटी तौर पर दूसरे पेडों की पत्तियों से बिलकुल अलग होती है, इसकी पत्तियों की बनावट भिन्न प्रकार की होती है, इसकी पत्तियां दूसरे पौधों के मुकाबले लम्बी एवं ठोस होती है.,  इसके वृ्क्ष की बनावट भी सबसे अलग होती है..! पर अब जिस तरह से जंगलो का दोहन हो रहा है एवं प्रदूषण बढ़ रहा है, इससे हमारे जंगलो का सतित्व खतरे में है,  इस धरा पर प्रकृ्ति ने इंसानो को  न जाने कितने रूपों में अनमोल भेट प्रदान किये है, पर इंसान इसकी महता को नहीं पहिचान पा रहा है,  अब स्थिति ये है कि धीरे धीरे हमारी प्रकृ्तिक सम्पदा पतन की और बढ़् रही हैं चीजें लुप्त होती जा रही है ये हम सब प्राणी मात्र के लिए बहुत चिंता क विषय बना हुआ है।


बुराँस का उपयोग :

  बुराँस का प्रयोग अनेकों रूपों से किया जाता है, साथ ही जंगलो में बुराँस का पेड़ विषेश महत्व रखता है, पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल स्त्रोतों को यथावत रखने में बुराँस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्राकृ्तिक संपदा के रूप में भी यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।अगर औषधी के रूप मे देखा जाए तो यह बहुत ही प्रयोगशाली सिद्ध हुआ है,  बुरांस का प्रयोग  भिन्न प्रकार के औषधियों मे किया जाता है,  इससे निर्मित औषधियां बडीं ही लाभकारी होती है, बुरांस के पुष्प का रस भी निकाला जाता है, यह अनेक बीमारियों मे भी लाभकारी है। पहाडी़ गाँवों मे स्थानीय लोग जंगल से बुराँस ले कर इसका शरबत  (जूश) निकाल लेते है,  एक तरफ से इसको अब कई लोगों का आय का साधन भी माना जाता है, पहाडी़ क्षेत्रों में गाँवों के लोग पेडों से बुराँस को निकाल कर बजार मे बेचते है जिससे उनको उसके बदले मे  आंशिक रूप से कुछ पैसा मिल जाता है, जिससे उनको आर्थिक रूप से कुछ सहायता मिल जाती है, और बाजार मे जा कर बुराँस से निर्मित कई वस्तुएं कई गुना  महंगे दामों मे हमारे सम्मुख प्राप्त होती है..!  इनमे से शरबत एवं औषधियाँ प्रमुख है,  बुराँश का शरबत हृ्दय रोगियों के लिए लाभकारी माना जाता है ! बुराँश सिर्फ मनुष्यों के लिए ही नहीं बल्कि अन्य जीवों के लिए भी उपयोगी है, इनमे से प्रमुख है मधुमक्खी, जी हाँ, मधुमक्खी को बुराँश का फूल सबसे ज्यादा पसन्द  हैं..! वह सबसे ज्यादा बुराँश के फूल का रस लेती है. क्योंकि वह आसानी से मिल जाता है, फिर मधुमक्खी इस रस से शहद का निर्माण करती है, परन्तु यह शहद आसानी से प्राप्त नहीं होता, क्योकि इसका स्रोत अधिकतर जंगलो या आस पास के ग्रामीण क्षेत्रों मे मिलता है, यह शहद बहुत ही उपयोगी होता है।   प्रकृ्ति के इस अनमोल देन में एक और खूबी होती है, बुराँश के फूलों की पंखुडियों में एक तरह का रस पाया जाता है  जो बहुत ही स्वादिष्ट एवं मीठा होता है, कई लोग कभी कभी इसके साथ बुराँस की पखुंडियों को भी खा जाते हैं.! साथ ही बुराँस कई अन्य प्रकार से भी उपयोगी है ! सूख जाने पर इसकी पतियाँ काफी काम आती है, गाँव के लोग इसकी पतियों को समेट कर घर लाते है, और इसे अपने पालतू जानवरों ( गाय, भैस ) के गौशालाओं मे डाल कर गौबर के रूप में खाद बना लेते है,  यह  सर्वोत्तम खाद माना जाता है जो  उपजाव भूमि एवं फसल के लिए बहुत उपयोगी है,  इससे खेतों मे फसल की पैदावार भी बहुत अच्छी होती है। बुराँस की लकडियां भी बहुत काम आती है,  इसकी  लकड़ी का इस्तेमाल भिन्न प्रकार के कृषि यंत्रों के हत्थे बनाने में किया जाता है। और साथ ही ग्रामीण लोग इसकी लकडीं का उपयोग खाना बनानें मे भी करते है। यह प्रकृ्तिक का ही चमत्कार है जो एक पेड़ बुराँश में इतने सारे गुण भरे हुए है, और इतना उपयोगी है।धन्यवाद..!



© देव नेगी



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शनिवार, 8 दिसंबर 2012

श्री गोपीनाथ मन्दिर गोपेश्वर (उत्तराखण्ड):


श्री गोपीनाथ मन्दिर 

भगवान  गोपीनाथ जी का यह  मन्दिर उत्तराखण्ड के चमोली क्षेत्र के गोपेश्वर नामक शहर में स्थित एक प्राचीन हिन्दू मंदिर है।  भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर भारत के प्रमुख रमणीय स्थलों मे से एक है।  इस पवित्र स्थल के दर्शन मात्र से ही भक्त अपने को धन्य मानते हैं, एवं भग्वान सारे भक्तों के समस्त कष्ट दूर कर देते  हैं,  गोपीनाथ मंदिर केदारनाथ मंदिर के बाद सबसे प्राचीन मंदिरों की श्रेणी में आता है. यहाँ पर मिले भिन्न प्रकार के पुरातत्व एवं शिलायें इस बात को दर्शाते है कि यहं मन्दिर कितना पौराणिक है, मन्दिर के आस पास, माँ दुर्गा, श्री गणेश एवं श्री हनुमान जी के मन्दिर हैं, जो भक्तों को और भी आनन्दमय एवं श्रद्धा से परिपूर्ण करते है,
भगवान गोपीनाथ जी के इस मन्दिर का दर्शन चार धाम यात्रा करने वाले श्रद्धालू चमोली से केदारनाथ यात्रा के दौरान गोपेश्वर में कर सकते है। भव्य शिलाओं       से बने इस मंदिर का निर्माण और वास्तुकला का स्वरूप सभी को आकर्षित करता है. पौराणिक महत्व लिए गोपीनाथ मंदिर शैव मत के साधकों का प्रमुख तीर्थ स्थल है. गोपेश्वर आने वाले तीर्थ यात्री गोपीनाथ मंदिर के दर्शन करना नहीं भूलते।

गोपीनाथ मन्दिर की पौराणिकता :

गोपेश्वर में स्थित भगवान शिव के मन्दिर गोपीनाथ को लेकर विभिन्न धार्मिक एवं पौराणिक तथ्य है,  पुराणों से इस जगह के बारे में  ज्ञात होता है कि यह स्थल भगवान शिव की तपोस्थली थी, यहाँ पर भगवान शिव ने अनेक वर्षों तक तपस्या की तथा भगवान शिव द्वारा कामदेव को इसी स्थान पर भस्म किया गया था, कहा जाता है कि सती के देह त्याग के पश्चात जब भगवान शिव तप में लीन हो गए थे,  तब ताड़कासुर नामक राक्षस ने तीनों लोकों में हा हा कार  मचा रखा था, तथा कोई भी उसे हरा नहीं पाया तब ब्रह्मा के कथन अनुसार शिव का पुत्र ही इसे मार सकता है. सभी देवों ने भगवान शिव की आराधना करनी शुरू कर दी परन्तु शिव अपनी तपस्या से नहीं जागे इस पर इंद्र ने कामदेव को यह कार्य सौंपा ताकी भगवान शिव तपस्या को समाप्त करके देवी पार्वती से विवाह कर लें और उनसे उत्पन्न पुत्र ताड़कासुर का वध कर सके।
इसी वजह से इंद्र ने कामदेव को शिव की तपस्या भंग करने भेजा और जब कामदेव ने भगवान शिव पर अपने काम तीरों से प्रहार किया तो भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई तथा शिव ने क्रोधित हो कामदेव को मारने के लिए अपना त्रिशूल फेंका तो वह त्रिशूल इस स्थान पर गढ़ गया जहाँ पर वर्तमान में गोपीनाथ जी का मंदिर स्थापित है, इसके अतिरिक्त एक अन्य कथा अनुसार यहां पर राजा सगर का शासन था. इसी राजा के नाम से आज भी यहाँ गोपेश्वर के निकट एक गाँव जिसका नाम सगर है, कहते हैं कि उस समय एक विचित्र घटना घटी एक गाय जो प्रतिदिन इस स्थान पर आया करती थी तथा उसके स्तनों का दूध स्वत: ही यहां पर गिरने लगता जब राजा को इस बात का पता चला तो राजा ने सिपाहियों समेत उस गाय का पीछा किया संपूर्ण घटनाक्रम को देखकर राजा के आश्चर्यचकित गहो गया जहाँ गाय के दूध की धारा स्वतः ही बह रही थी वहाँ पर एक शिव लिंग स्थापित था,  इस पर राजा ने उस पवित्र स्थल पर मन्दिर का निर्माण किया।

पौराणिक त्रिशूल :

श्री गोपी नाथ मंदिर के दर्शन एवं परिक्रमा करने के बाद बाँयी तरफ श्री हनुमान जी के मन्दिर के सामने एक विशाल त्रिशूल है,  मंदिर के दर्शन के बाद त्रिशूल के दर्शन एवं परिक्रमा करने प्रवधान है   मान्यताओं के अनुसार जब भगवान शिव ने कामदेव को मारने के लिए अपना त्रिशूल फेंका तो वह यहाँ गढ़ गया। त्रिशूल का धातु अभी भी सही स्थित में है, त्रिशूल की धातु का सही ज्ञान तो नहीं हो पाया है परंतु इतना अवश्य है कि यह अष्ट धातु का बना होगा,  जिस पर मौसम भी प्रभावहीन है और यह आज के युग में एक आश्वर्यजनक बात है।  यह भी माना जाता है कि शारिरिक बल से इस त्रिशुल को हिलाया भी नहीं जा सकता, जबकि यदि कोई सच्चा भक्त इसे उंगली से भी छू भी ले तो इसमें कम्पन होने लगता है। श्रद्धा के सागर मे बहने वाले भक्त यहाँ अपनी भक्ती की आजमाइस जरूर करते है!

गोपीनाथ मन्दिर महत्व :

भगवान  गोपीनाथ जी के इस मन्दिर का महत्व बहुत ही विशेष है। हर रोज सैकडो़  श्रद्धालू यहाँ भगवान के दर्शनार्थ आते हैं,  इस मन्दिर  में शिवलिंग, परशुराम, भैरव जी की प्रतिमाएँ विराजमान हैं. मन्दिर  के निर्माण में भव्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है. मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है मंदिर से कुछ दूरी पर वैतरणी नामक कुंड स्थापित है जिसके पवित्र जल में स्नान करने का विशेष महत्व है। सभी श्रद्धालू इस पवित्र स्थल के दर्शन प्राप्त करके  अपने को धन्य मानते हैं ।

धन्यवाद !

© देव नेगी


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